Tuesday, January 28, 2014

पुराना आईना टूट गया

"बिलकुल मेरी हंसी हँसता था, मेरे संग गाता था 
   टूट गया तब जाना, वो तो एक आईना था ! "

पल भर के झगड़े में, पुराना आईना टूट गया
मिलते थे हर रोज़ जिससे, वो अपना छूट गया !

घर हो गया छोटा, बड़ी हो गयीं दीवारें सारी
जनता था जो मुझे मुझसे ज्यादा, वो शख्स कहीं खो गया !

उस आईने में समाये थे न जाने कितने आईने 
टूट कर मुझे न जाने कितने रूप दिखा गया !

मुद्दतों रहा साथ मेरे, फिर भी अहमियत न जान पाया
टुटा वो इस कदर कि मुझे मेरी हैसियत बता गया !

टूटने के बाद ही सही, सोचा अब सम्भाला जाए
काट कर ऊँगली वो मेरी, बची नाराज़गी जता गया !

Friday, January 24, 2014

विक्षिप्त दुविधा

टिमटिमाती रात की रंगीनियों में
आतुरता से आश्रय ढूँढता मन,
जब खुद को हारा और भुला हुआ पाता  है 
तो उसे सुनाई देते हैं- वही गूँजते शब्द
"पाश ","मुक्तिबोध" और "मंटो"  के शब्द
जो उस सहमें हुए मन को
भटकाव की सीमा
गहराई और
नग्नता दिखा जाते हैं

और विक्षिप्त मन लाकर पटक दिया जाता है
उस चौराहे पर
जिससे जाने वाले सारे रास्ते भरे पड़े हैं -
कहीं ज़िंदा लाशों से
कहीं चीखते सपनों से
कहीं बेसुध वादों से और
कहीं झगड़ते विचारों से

तब दुविधा और घुटन के बीच अवलोकन होता है
अनुभव का,
और चयन  बेहतर रास्ते का 
फिर सफ़र शुरू होता है-
लाशों पर काँपते हल्के, मगर
मजबूत क़दमों का,
फिसलन से बचने की ज़दोजहद के साथ

कुंठित मन चला जाता है 
चिर परिचित लाशों के सड़क पे
जगह जगह पर मुँह छुपाते
अपनी लाशों से !

Thursday, January 16, 2014

बेकारी और फ़िरक़ापरस्ती में भी सियासत

इस तालाब में अब भी हलचल बाकी है, वरना
किनारे पर तो हम सुबह से पत्थर ले कर बैठे हैं !

दौलत के साथ साथ घर भी फूंक दी हमनें
बैठने की आदत है इसीलिए सड़क पे आ कर बैठे हैं !

तुम इस पहाड़ की चोटी फतह करने निकले हो
हम तो कबसे इसमें सुरंग बना कर बैठे हैं !

ये गर्दिशों के बादल आज नहीं तो कल छटेंगे
उसी कल के इंतज़ार में तो, हम एक उम्र से बैठे हैं !

आयें थे इस गली में आँखें चार करने 
तभी से यहाँ हाथ पैर तुड़वा कर बैठे हैं !

मेरा भला, सबका भला ये हसरत मुददतों से पाले बैठे हैं
पर क्या करें? जहाँ बैठे हैं, बड़े इत्मीनान से बैठे हैं !

इस आंदोलन को तो हम चुटकियों में मसल दें
मगर इस चुटकी में भी कुछ राज़ दबा कर बैठे हैं !

इन ज़हरीली हवाओं में दम घुटता तो है
आँखों में लहू भी है, पर ज़बान दबा कर बैठे हैं !

जो निकले थें सर कटाने, वो सब सेहरा बांध कर बैठे हैं
अगले जुलूस के ताक में, हम भी सर मुँड़वा कर बैठे हैं !

Saturday, January 11, 2014

तूने मुझको शायर बना दिया !

उस्ताद नुसरत फ़तेह अली खान की क़व्वाली "ये जो हल्का हल्का सुरूर है " की धुन पे अपने भाव गढ़ने की एक कोशिश ....

ये तो तेरी कशिश की आग थी
जो बुझे चिराग को जला दिया
बनना तो चाहा फ़क़ीर था
तूने मुझको शायर बना दिया !

भटकने की थी ख्वाहिशें 
तूने अपने दर पे फंसा लिया
झुका न था ये सर कहीं
तेरे सजदे में मैंने झुका दिया !

दिल तो कब से खामोश था
मुद्दतों से ही बेहोश था
तूने जाम कैसा पिला दिया
मदहोश करके नचा दिया !
तूने राग कैसा सुना दिया!
पागल हीं मुझको बना दिया !

तुमसे कोई शिकायत नहीं
तुमसे हुई कोई गल नहीं
ये तो तेरा बस एक नूर था
मिला मुझे वो कोहिनूर था
जिसे रब हीं मैंने बना लिया
खुद को जिसमें भुला दिया !

तेरी इबादत मेरा जुनून है
तेरी हँसी मेरा सुकून है
बंदिशें भी तेरी क़ुबूल है
रहमत मिली तेरी तस्वीर है
जिसे दिल में मैंने बसा लिया
तूने दिल को जन्नत बना दिया !


तेरी कशिश की आग थी
जो बुझे चिराग को जला दिया
बनना तो चाहा फ़क़ीर था
तूने मुझको शायर बना दिया !

Wednesday, January 8, 2014

दब गयी एक चीत्कार

बर्फ सी ठंढी रात में
उस अधूरे खंडहर में
जलती रही आग
गूँजते रहें वो ठहाके
और दब गयी एक चीत्कार
उस अधूरे खंडहर में !

क़त्ल हुआ एक साहस का
एक पहल का
बुलन्द-बेधड़क एक स्वाभिमान का
दागदार हुआ, एक रास्ता
जो बना था कई बंधन तोड़ कर
बाहर आने से, उस दहलीज को पार करने से 
जो शादियों से अपने विस्तार पर अकड़ता था

एक उम्मीद की किरण एक कोने से
मिटा दी गई
फिर, समेट ली गयीं अनगिनत पुलकित किरणें
एक भय से
उस खबर से
कि,  दब गयी एक चीत्कार
उस अधूरे खंडहर में !

Saturday, January 4, 2014

सब कहते हैं कि उसने दर्द को देखा है

सब कहते हैं कि उसने दर्द को देखा है
मुझको है मालूम, उसने मेरी आँखों में देखा है !

अश्क है या पानी इसका उसे कोई खबर नहीं
दरिया तो नहीं देखा मगर उसने समन्दर देखा है !

वो झूमते बाग़, वो गाती हवायें उन दिनों
खिज़ा में भी  उसने  बहार  को  देखा  है !

दिन में माहताब, रात में उजाला तन्हाई में
उसने  न  जाने  क्या  क्या  देखा  है !

बहुत देर हो गयी सोच कर शमा बुझा दी उसने 
न जाने किस ख्याल से, शमा फिर से जला कर देखा है !

तारे थें सारे, फिर भी आकाश की वो महफ़िल उदास थी
बड़ी जद्दोजहद से, बादलों का पर्दा हटा कर उसने चाँद को देखा है !



Thursday, January 2, 2014

तू तो बस पिये जा, पैमाना मत देख

न जाने कब ख़त्म हो जाये जाम-ए-ज़िन्दगी
तू तो बस पिये जा, पैमाना मत देख

कुछ पाने की हो तमन्ना तो हौसला रख
और उड़े जा, ऊचाई मत देख

चोटी से भी गिरते हैं लोग यहाँ
सम्भल कर बढ़े जा, उपलब्धियाँ मत देख

इन उजालों में भी भटकाव हैं बहुत
मुकाम भी देख, केवल रास्ता मत देख

कितने हीं मिट गयें यह ईमारत बनाने में
बुनियाद भी देख, केवल सजावट मत देख

कब ये शाम रात बन निगल जाये सबको
औरों को जला, जल खुद भी, केवल तमाशा मत देख !