Friday, February 28, 2014

तेरी रोशनी में !

मैंने देखा खुद को
चलते हवाओं पे, तुम्हारी ओर
और तुम्हे बादलों पर
चुनते कपास के फूल
मुस्कुराते हुए
लाल रंग के आँसुओं के साथ रोते सूरज को
तुम कर रही थी विदा
दूसरी ओर इठलाता
मन ही मन मुस्काता, चाँद
जो बढ़ रहा था तुम्हारी ओर 
देखने खुद को बेदाग
तुम्हारे चेहरे में
और सूरज के आसुओं के छींटे
तुम्हारे होठों पे
टिमटिमाते तारों को
तुम्हारी आँखों से!
महसूस करना चाहता
बादल की सलवटें
तुम्हारी हथेलियों से
बिना बिखेरे बिना बिगाड़े!
तुम्हारे जरिये चाहता
जीना इक नए ढंग से
नयी पहचान  के साथ
तेरी बेबोझिल रोशनी में
चाहता निपटाना सूरज का हिसाब
उतार कर उसका प्रकाश !
और मैं
देखता दूर से, तुझे
तेरी रोशनी में
चाँद को
तेरी रोशनी में
बादल को
तेरी रोशनी में 
मुस्कुराता
तेरी रोशनी में !

Wednesday, February 26, 2014

कवि की व्यथा

जब भी सुनता हूँ
कवियों की कहानी
सबमें एक ख़ास बात होती है
सबने कुछ अलग जिया
किसी ने गरीबी देखी
किसी ने किस्मत की पहेली देखी
कहीं कोई गर्त से उठा
कोई रहा सड़क पे लेटा
गंगा किसी के जज़बात की उद्गार बनी
यमुना किसी के प्रेम की प्रमाण बनी
सबने नहीं तो अधिकों ने
अपने चंचल मन को
सुना कोयलों के कूँ में
उन आम के बगीचों में
गाँव के खुले मैदान में

तो मैं पूछता हूँ खुद से
अपने स्रोत से
मैं तो बीच में फंस गया!
न गरीबी की मार झेली
न अमीरी के मज़े लुटे
पला उस परिवार में
जहां सब कुछ यथेष्ट था
न कम न ज्यादा
न हीं नदी की निर्मल धार देखी
जो देखा वो छठ के अर्घ के लिए
गन्दा दामोदर देखा
जिसमें कहने पर डुबकी लगा भी लिए
तो फिर से नहाना जरूरी होता
न खुले मैदान थे
न आसमान को छूते पर्वत
थे तो बौने से पठारी पहाड़ियां
अधनंगे चट्टानों के टीले
जिनपे उगी थी बौनी झाड़ियां
छितरे बितरे से
और कोयले की खान
कोयले जैसी काली
धूल के गुबार हवाओं के साथ
दूर दूर तक फैलते
मगर अस्पष्ट विस्तार
धूल जो ठहरा
कब बैठ जाये और कब उड़ जाये
कोई ठिकाना न था
संक्षेप में कहूँ तो
वातावरण शुद्ध न था
जो भी पेड़ पौधे लोगों ने परिश्रम से उगाये थे
कोयले की चादर उनपे भी चढ़ी थी
आखिर परिवेश तो वही था 
तो फिर कोयल कहाँ से आते
काले आमों पे कैसे गाते?

तो फिर मैं क्या लिखूं ?
मन क्यूँ चाहता है?
कवि बनना!
अब कोयले की बखान करूँ ?
बौने पहाड़ों की शोभा गाऊँ ?
या उन धूल के गुबारों की दास्ताँ सुनाऊँ
जो बिना किसी कारवां के गुज़रे ही बन जाते?
कैसे और क्या  लिखूँ ?
क्या सुनाऊँ ?

Tuesday, February 18, 2014

A moderate life?

ज़िन्दगी में उलझने कम थी?
या हमनें मापी कम थी ?
सीधी राहें मिली कम थी?
या हमनें छोड़ी कम थी?

दुनिया में शोहरत कम थी?
या हमारी गुमनामी कम थी?
दिल के सेहन में तन्हाई कम थी ?
या हमें बज़्म की ख्वाहिश कम थी ?

ज़िन्दगी हाथ आयी कम थी ?
या हमने चाही कम थी ?
जीने की तमन्ना कम थी ?
या पाने की जुस्तजू कम थी ?

बिखरने की हद कम थी?
या सम्भलने की कोशिश कम थी ?
रुकने की जरूरत कम थी ?
या हमें तब थकान कम थी ?

जितनी मिली थी कम थी ?
या उतने की औक़ात कम थी?
गम के साथ ख़ुशी कम थी?
या हमें उसकी क़द्र कम थी?

Sunday, February 16, 2014

काश कुछ ऐसा हो कि

काश कुछ ऐसा हो कि 
हम जो कह न पायें वो बात समझ जाओ
हम जो लिख न पायें वो जज्बात समझ जाओ
और जब पिघले ये दूरी
तुम वो रास्ता वो हालात समझ जाओ !

काश कुछ ऐसा हो कि
हम जो छोड़ न पायें वो निशाँ समझ जाओ
हम जो साथ न लायें वो कारवाँ समझ जाओ
मजबूरी दुनियादारी के बीच फसी
तुम वो अनकही दास्ताँ समझ जाओ !

काश कुछ ऐसा हो कि
हम जो देख न पायें वो ख्वाब समझ जाओ
हम जो समझ न पायें वो हिसाब समझ जाओ
बेअसर होती अपनी कहानी
तुम वो ज़िन्दगी की किताब समझ जाओ

काश कुछ ऐसा हो  कि
हम जो ला न पाये वो सौगात समझ जाओ
हम जो बचा न पाये वो आघात समझ जाओ
भीड़ में भटकती है परछाई अपनी
तुम वो साज़िश करती कायनात समझ जाओ !

Wednesday, February 12, 2014

और बेकार उम्र गुजरने दिया !

जो था एक ख्वाब उसे ख्वाब ही रहने दिया
छटपटाते चाहतों को इस दुनिया में बंधने दिया !

धुएं का है जो यह उजाला बेहोशी कण कण लिए, हाँ 
कुछ वादों और विवादों के लिए, रग रग  में इसे घुसने दिया !

होगा क्या इससे बुरा, हम रहे या ना रहे
उस घड़ी जब चीखना था, खुद को चुप रहने दिया!

आएगा सैलाब जब और समंदर सब निगल जायेगा
मींचते रहेंगे हाथ सारे, जब दरिया को हीं बंधने दिया !

मशाल लिए कुछ लड़ते रहें, चिल्लाते और जगाते रहे, मगर
बदहवासी ऐसी, कि खुदी को अँधेरे में गोता लगाने दिया !

एक था न वक़्त कभी, रुका न किसी के साथ कहीं
बख्श दिया उन लम्हों को, और बेकार उम्र गुजरने दिया !

Tuesday, February 4, 2014

क्यों व्यर्थ चिंता करते हो?

क्यों व्यर्थ चिंता करते हो? तसव्वुरे जाना में दिन काटो
और जो जुदा हो गए हो, तो फिर ग़ज़ल में दिन काटो

इन छीटों से डर गये तो मझधार में क्या होगा
बेहतर है कूचे को छोड़, अपने घर में दिन काटो

क्यूँ हर घड़ी तुम्हारी नज़र इस घड़ी पर है
कभी तो ऐसा हो, वक़्त को भूल कर दिन काटो

इतनी जल्दी बेमयस्सर चाहत पे गुमान! मियाँ
एक बार छुप कर, कू-ए-यार में दिन काटो

माना वो हादसा ज़ख्म गहरा दे गया, मगर 
ये तारीख भी सँवर कर आयी है, इसे आजमा कर देखो !

कैद परिन्दों जैसे दिल में हैं ख्वाहिशें कितनी
किसी रोज़ तो आसमां को अपना बना कर देखो !