Thursday, March 27, 2014

कभी कभी ही सही

कभी कभी ही सही हमसे मिला करो
हमारी खबर न सही अपनी लिया करो !

कहाँ ढूंढते फिरते हो खुद को दौरे हरम में
शौक न हो भटकने का तो हमसे मिला करो !

हमारे सीने में है तुम्हारी बेचैन धड़कन
खुशबू की तरह ही सही साँसों में बसा करो !

चाँद को देखे गर आँखों में जलन होती हो 
आँख मूँद कर ही सही मगर पास रहा करो !

पूरे हुए गर जंगल पहाड़ तो मुड़ो इधर
जो तुम दरिया हो तो समंदर से मिला करो !

ऐसी भी बेरुखी अच्छी नहीं ज़माने के लिए
हमारी ज़िन्दगी न सही अपनी जिया करो !

गम की लकीर पड़ी है तक़दीर पर, मिट जायेगी
तुम अपने नर्म हथेलियों से कभी मिटाया करो !

राहों को भी अरसे से मंज़िल की तलाश है
तुम घर से निकल किसी ओर तो चला करो !

मायूस हैं सारे आफताब की दग़ाबाज़ी से
तफ्तीश ही सही अपनी पलके उठाया करो !

बेज़ार हैं फ़िज़ायें रुकी रुकी है हवा
अपने गेसुओं को खुले में बिखेरा करो !

Tuesday, March 25, 2014

दौड़ता पत्ता

सड़क की दूसरी ओर
डिवाइडर से सटकर
वो सूखा पत्ता हवा से दौड़ लगा रहा था
और अचानक से रुक गया
सुसता रहा था या हार चूका था
कह नहीं सकता !

उसने सर उठा कर मेरी ओर देखा
फिर आगे देखा
थोड़ा हिला मगर ठहर गया
शायद थकान बाकी थी
फिर सर उठा आगे देखा
हांफते हुए झुक कर साँस लेते हुए धावक के जैसे
मुस्कुरा रहा था या पछता रहा था
कह नहीं सकता !

मेरी नज़र में
आगे पीछे कोई और पत्ता न था
मगर वो बेचैन था
शायद उसे मालूम होगा उसके प्रतिद्वंदियों का ठिकाना
दूर पे ही सही शायद उसे दिख भी रहे होंगे  
हो सकता है गुजरे हवा को भी वह देख रहा होगा
अपना मुकाम भी जान रहा होगा
डरा था या हिम्मत जुगाड़ रहा था
कह नहीं सकता !

तभी हवा का एक झोका आया
और वह फिर दौड़ा बिना मुझे देखे
लगा इस बार हवा को पछाड़ेगा, लेकिन
कुछ दूर जाके फिर रुका
मै अपनी राह बढ़ता रहा
बराबर पहुच कर उसे देखा
उसने भी मुझे देखा 
मैंने सोचा
वह न जाने किस अनजानी दौड़ में दौड़ रहा है
कब से भाग रहा है कुछ खबर भी है रास्ते की ?....

वह मेरे बारे में ऐसा ही सोच रहा होगा ?
कह नहीं सकता !

Sunday, March 23, 2014

दिल मांगे मोर !

फ़िजाओं में है राजनीति का शोर
न जाने क्यूँ सबका हीं दिल मांगे मोर !

कैसे चलेगा काम यहाँ जब
चलता नहीं किसी का किसी पे जोर !

यही सवाल अब हर घडी हर रोज़
यह घड़ी है कौन सी-शाम है या भोर !

कल नहीं तो क्यूँ हुआ वह आज चोर
सामने नहीं पीछे सही, कोई तो रहा है बटोर !

मुफ्तखोर कहे है हम नहीं वह है सूदखोर
अब कैसे कहें कौन है मुँहचोर और कौन चुगलखोर !
 
बज गयी घंटी हो गयी शाम
कट गयी पतंग, अब बटोर लो अपने अपने डोर !

कथा है यह शाश्वत, इसका कहीं नहीं है छोर
चलो यार, दिमाग पे फिजूल मत लगाओ जोर !

Tuesday, March 18, 2014

रेडी-मेड ज़िन्दगी

रेडी-मेड ज़िन्दगी और पके-पकाये ख्वाब बिकने लगें
सड़को पर नाचते-गाते वादों की चादर बिछने लगें !

दीमक लगी किवाड़ भस-भसा के गिरने लगी
और वे कहतें हैं खुली हवा के लिए दरवाजे खुलने लगें !

कहीं पे मौत चिल्लाने लगी लाशे फड़-फड़ाने लगीं   
वहीँ झूमने लगे कदम, शामियानों में दरबार लगने लगें !

खुली हवाओं में है बन रहे सपनों के किलें यहाँ
बातों के पेड़ों पे हर समस्या का समाधान झूलने लगें !

गले में जब तब नमी है चिल्ला लो जितना बन सके
माइक है सामने तुम भी अब टीवी में दिखने लगे !

जो है जैसा वैसा हीं रहेगा यह तो पहले से है लिखा
अब तो नफा नुक्सान के आगे, खानदानी व्यपार चलने लगें !

Sunday, March 16, 2014

भूलने का हुनर सिखा जा

छोड़ दूँ तेरा इंतज़ार तू मुझे पागल बना जा
मुझे नहीं न सही, खुद को ही बहला जा !!

ये ज़रा सी दोस्ती ज़रा सी अदावत बेअदब  है       (अदावत-enmity, बेअदब-unmannerly)
इतना कर एक बार मुझे खुद से मिला जा !!

तेरे निगेहबानी पे यकीन है साँसे ले रहा हूँ मैं          (निगेहबानी-guardianship)
मेरी तसल्ली के लिए निसारे जिगर दिखा जा !!     (निसारे जिगर-donated heart)

और न चाहूँ तुझसे तेरी तग़ाफ़ुल काफी है               (तग़ाफ़ुल-deliberate ignorance)
फिर भी, फुर्सत से मुझे मुझमें कहीं जला जा !!

जो यदि तेरी याद सतायेगी ख़ाक होने के बाद
एक एहसान और कर, भूलने का हुनर सिखा जा !!

Saturday, March 15, 2014

रात का सफ़र

यह रात कोई अलग न थी
मगर न जाने कहाँ से गाँव आया था
जहाँ कई बार छुट्टियों में गया था ।
- गाँव आया था सपने में
लेके सदायें उन हिस्सों की
जो मैंने छोड़ आये थे वहीँ आखिरी छुट्टी में
तो चल दिया मैं भी साथ फिर से
देखा 

खाट पे सोती रात
छत पे होती बात
आधे गिने तारों से साथ
दो छोटी उँगलियों का इशारा
चार आँखों में गहराता एक खोज
एक तारे समूह का कहीं खो जाना
मगर फिर होठों पे लहराती मुस्कान
एक गुमान
एक नए समूह की पहचान
चाँद के बगल से गुजरता चितकबरा बादल
एक घेरे से दूसरे घेरे में घुसता चाँद
दोनों दिमाग में एक सवाल
आखिर चाँद का क्या है मिज़ाज ?
एक दिमाग ढूँढता जवाब
दूसरा नए तारे गिनता चाँद के पीछे के तारे

और फिर हवा की आवाज़
रात्रि का पैगाम
ठंढ का एहसास
चादर की खिचान
आँख मूँद रात्रि का सम्मान

रात भर देखता रहा
दो मुस्कान
खुद को और भाई को

उठा सुबह
साथ लेके वही मुस्कान !

Thursday, March 13, 2014

मैं लिखता हूँ

सुलझी हुई ज़िन्दगी उलझाने के लिए लिखता हूँ
भरे हुए घाव कुरेदने के लिए लिखता हूँ !

कुछ सर्द एहसास दब से गयें है भीतर
उनका भी राग सुनाने के लिए लिखता हूँ !

लश्कर है फिरता ग़मों का इस ज़हन में
उन सबकी तरबियत के लिए लिखता हूँ !

घर घड़ी जो तमन्नायें उफान मारती हैं
उन्हें बहलाने फुसलाने के लिए लिखता हूँ !

मुझे खबर है किसी के इंतज़ार की
इसलिए नहीं चाहते हुए भी लिखता हूँ !

क्या मालूम कब रुक जाये नब्ज़े हयात
अपना भी रंग छोड़ जाने के लिए लिखता हूँ !


Sunday, March 9, 2014

एक डर है

एक डर है
जो चाहा उसके न मिलने का
जो न चाहा उसके हो जाने का

एक डर है
जो कमाया उसके खो जाने का
जो छोड़ा उसके मिल जाने का

एक डर है
जो बनाया उसके गिर जाने का
जो गिराया उसके उठ जाने का

एक डर है
साथी के सफ़र में छूट जाने का
एक मोड़ पे रास्ता ख़त्म हो जाने का

एक डर है
जिसे तराशा उसके टूट जाने का
जिसे सराहा उसके चूभ जाने का

एक डर है
बेवक़्त चिराग के बुझ जाने का
बेसबब सबकुछ बिखर जाने का

एक डर है
साँसों के बेजुबाँ हो जाने का
धड़कनों का बेलगाम हो जाने का

एक डर है
तन्हाई में खुद के खो जाने का
मुझसे तन्हाई का रूठ जाने का

एक डर है
चश्में जज़्बात के सूख जाने का
सर्द एहसास के जम जाने का

एक डर है
इस डर से डर कर रुक जाने का
इस डर का ज़हन में घर कर जाने का