Thursday, May 29, 2014

छोटी है ये ज़िन्दगी, मगर काफी है

Artwork by Linda Apple
हमारी यादों पर तुम्हारी नज़र काफी है
छोटी है ये ज़िन्दगी,  मगर  काफी है

न  चाहा था ज्यादा, मिला  भी  नहीं
जैसे   भी  रहा  है   गुजर   काफी  है

इस  जहां  से  आगे  भी  लम्बा है  रास्ता
वैसे जीने के लिए इतना भी सफ़र काफी है

कितने ही नियत हुयीं ख़राब  अन्धेरे  में
दाग़-ए-दगा मिटाने को ये शहर काफी है

मातम का अँधेरा हो चाहे  जितना  घाना  
हँसी के लिए तो इक नूर-ए-सहर काफी है

सोयी  सोयी  सी  तबियत  है  हर  मंज़र  की
फिर भी, सोह्बत-ए-यार में चंद पहर काफी है

Tuesday, May 20, 2014

काश.…

काश 

दिलों   में  फ़ासलें  न   होते 
ऐसे थें तो हम मिले न होते

तुम्हारे एहसास हमारे ख्याल 
यूं   तनहा   अकेले   न   होते 

उन  छाती   से  लिपट  रोते 
जिनमें   हम   पले   न  होते

वक़्त ने फेंके थे पासे आज़माने को 
जल्दबाज़ी  में  यूं  फिसले  न  होते

नाकाम होता दाव- ए- सियासत  
गर   बेताबी   में   जले   न  होते

हमारा  भरोसा कमजोर न होता 
ज़हर  बोये  न  होते फले न होते

एक दुसरे के सोहबत से पूरे होते 
यूं  एक  दूजे  से  खले  न  होते

काश 
सहर  होता  कोई  बेदाग़  ऐसा
अलग  अलग फूल खिले न होते

Sunday, May 18, 2014

धुआँ बन मैं संग उड़ने को तैयार था

ये हवा जो तेरी खुशबू बाँटने को तैयार होती
धुआँ बन मैं संग उड़ने को तैयार था !!

बादलों में बनते बिगड़ते हर चेहरे से लगा
जो तेरा होता तो मैं रंग भरने को तैयार था !!

सुनहरी तितली कलाबाजी करते आयी मेरे सामने
जो तू सीखती तो मै उसे पकड़ने को तैयार था !!

इस नदी में गहराई तो है लेकिन वैसी नही
जो तेरी खामोशी होती तो मै डूबने को तैयार था !!

उन यादों में अक्सर मिल जाया करती हो तुम
जो तू रोक लेती तो मैं वहीँ रह्ने को तैयार था !!

जो जानता इतनी हसीन होगी तसव्वूर मेँ रात
दुनियादारी भूल मैं खयालों मेँ खोने को तैयार था !!

Sunday, May 11, 2014

माँ तो माँ ही होती है

बच्चे की सलामती के लिए मंदिर मज़ार भटकती है
वो हिन्दू मुस्लमान नहीं, माँ तो माँ ही होती है

मुझसे पहले होता है उसे मेरे दर्द का एहसास
मेरी माँ सपने में भी मेरा ख्याल रखती है

कहता हूँ यहाँ सब कुछ है और मैं भी अच्छा हूँ
बेटा दूर है सोचकर माँ फिर भी उपवास करती है

एक बेटे के पास होकर भी दुसरे की चिंता करती है
ज़माने पे नहीं है उसे भरोसा अपने दुआओं तले रखती है

उसके उम्र से लगता है थक गयी है अब आराम करे
मगर मेरे बिमारी पे मेरी चाकरी के लिए तैयार रहती है

कैसे कहूँ फुर्सत नहीं हैं अबकी बार काम बहुत है
मगर उसे तो केवल मुझे देखने भर की तमन्ना रहती है

डरता हूँ केवल जुदा होने से वरना मुझे यक़ीन है
दूसरे जहां में भी माँ की दुआएं काम करती है


Friday, May 9, 2014

कश्मकश

बंद कलम खाली कागज़ हिसाब जारी है 
दर्द बयाँ करने को अब जख्म भी उधारी है

वो वारदात उसने भी देखा अपनी आँखों से
चुप है बस इसलिए कि उनसे रिश्तेदारी है
 
कब तलक गवाही देंगे मुर्दे कत्लेआम की
उन छीटों के ऊपर तो धोती कुर्ता सफारी है

किसके धड़ पर किसका सर ज़बाँ किसकी है
कफ़न बनेगा किस रंग का किसकी जिम्मेदारी है

अलग से कब्रें क्यूँ बनाना भटकने दो खुले में
कैद में मरनेवालों का क्या दिखना भी भारी है

उड़ते परिन्दे भी हैं खौफजदा ज़मीनी बर्बादी से 
दौड़नेवाले पैर कटा चुके रेंगनेवालों की बारी है

Saturday, May 3, 2014

असम - क्या हाथों में हथियार जरूरी है

ये कैसी मजबूरी है
अपनी मर्ज़ी से जी भी न सकते
अपनी मर्जी से मर भी न सकते

कहते है उनके सोच में आंधी है
तूफानों से लोहा लेते
जंगलों में अपना बाग बनाते
उनके पत्थर पानी एक है
मगर
ये दर तो उनका है
हम तो घास चरने वाले हैं
तो फिर क्यूँ
अपनी मर्ज़ी से मैदान चुन भी न सकते
अपनी मर्ज़ी से कहीं टहल भी न सकते
ये कैसी मजबूरी है

आकाश का रंग वो बताते हैं लाल
चेहरे पर रंग लगाते हैं लाल
बन्दुक की पिचकारी करती है सब लाल
उनकी सोच है लाल
मगर
हमें तो आकाश दीखता है नीला
घास का मैदान दूर तक है हरा
तो फिर क्यूँ
अपनी मर्ज़ी से रंग चुन भी न सकते
अपनी मर्ज़ी से होली खेल भी न सकते
ये कैसी मजबूरी है

वो बताते है धरती का यह हिस्सा अपना है
नदी का पानी हो रहा जूठा है
पहाड़ की छाव छीनी जा रही है
जंगल के रस लुटे जा रहे हैं
मगर
हमने तो छाझा रह्ना सिखा है
मिल बाँट कर खाना-पीना सिखा है
तो फिर क्यूँ
अपनी मर्ज़ी से कहीं रह भी न सकते
अपनी मर्ज़ी से कुछ चुन भी न सकते
ये कैसी मजबूरी है

वो चेहरे को अच्छा और बूरा बताते हैं
ये अपनों का और ये हानिकारक कौम का
ये हमें घाव को हरा रखना सिखाते हैँ
बदले में जलना और जलाना सिखाते हैं
मगर
हमें तो अपनों के साथ सुख-दुःख बाँटने आता है
जरूरत पे एक दूसरे के काम अाना आता है
तो फिर क्यूँ
अपनी मर्ज़ी से अपना पराया मान भी न सकते
अपनी मर्ज़ी से बेहिचक कुछ कह भी न सकते
ये कैसी मजबूरी है

ये कैसी मजबूरी है
क्या अमन पसन्द कमजोरी है
ये कैसी मजबूरी है
क्या हाथों में हथियार जरूरी है