Monday, August 25, 2014

मौत से पहले दर्द का हिसाब क्यूँ

मौत से पहले दर्द का हिसाब क्यूँ
तेरे होने पे भी मिज़ाज ख़राब क्यूँ

घर यादों में बना लूँ तेरे बिना फिर भी 
दरीचों से झाकने को दिल बेताब क्यूँ

वस्ल का महताब आज भी है शर्माता
जुदाई पे बेबाक हुआ आफ़ताब क्यूँ

अँधेरों के राज़ अँधेरे में हैं दम तोड़ते
इस उजाले पे फ़िजूल हिजाब क्यूँ

हक़ीक़त के शिकंजे में रोती है रूह
ख़ाबों के परों में आया शबाब क्यूँ

गर्दिशों ने चखाया हमें अब्रों शराब
वाइज़ पूछे तो भी दूँ जवाब क्यूँ

Tuesday, August 5, 2014

चाँद, तारों की गुफ्तगू सुनता रहा रात भर

चाँद, तारों की गुफ्तगू सुनता रहा रात भर
'The Starry Night' painting by Vincent van Gogh
जलन से बादल रंग बदलता रहा रात भर

नज़र में आने को बेताब एक परिंदा 
हवा में कलाबाजियाँ करता रहा रात भर

जलती शमा के इश्क़ में पागल परवाना
काँच पर  सर  पटकता  रहा  रात  भर

किसी और को न पा कर हवा फिर से
सोते पेड़ को  जगाती  रही  रात  भर

मखमल के बिस्तर से सड़क के फूटपाथ तक
नए पुराने ख़ाबों का सौदा होता रहा रात  भर

नादान औलादों की गुस्ताखी माफ़ कर, वो 
फ़िज़ा को शबनम से सजाता रहा रात भर

सबकी जरूरत जान कर थका हारा सूरज
फिर से जलने को तैयार होता रहा रात भर