Sunday, September 10, 2017

उसने अंधेरों में हीं जो घर बनाना चाहा


उसने अंधेरों में हीं जो घर बनाना चाहा
उजालों ने उसपे भी हक़ जमाना चाहा

कदम रखने को जहाँ मिलती नहीं जगह
सुना है किसी ने खुद को दफनाना चाहा

ख्वाहिश थी लह-लहा के जलूँ , मगर  
बारिशों ने तो कभी हवाओं ने बुझाना चाहा
 
वह जागना चाहा मगर आँख लगती रही
हसीं खाबों ने उसे पूरजोर सताना चाहा

जिन रास्तों पे चलते हौसला पस्त हुआ
उन्ही रास्तो ने हुस्ने मंज़िल दिखाना चाहा

रंजे नाकामी जो जिगर से निकल न सका
हक़ जताते पूरे जिस्म को तड़पाना चाहा

~ पंकज कुमार 'शदाब'