उजालों ने उसपे भी हक़ जमाना चाहा
कदम रखने को जहाँ मिलती नहीं जगह
सुना है किसी ने खुद को दफनाना चाहा
ख्वाहिश थी लह-लहा के जलूँ , मगर
बारिशों ने तो कभी हवाओं ने बुझाना चाहा
वह जागना चाहा मगर आँख लगती रही
हसीं खाबों ने उसे पूरजोर सताना चाहा
जिन रास्तों पे चलते हौसला पस्त हुआ
उन्ही रास्तो ने हुस्ने मंज़िल दिखाना चाहा
रंजे नाकामी जो जिगर से निकल न सका
हक़ जताते पूरे जिस्म को तड़पाना चाहा
~ पंकज कुमार 'शदाब'