Friday, September 27, 2013

माँ! तू तो हमेशा ही वहाँ थी!

आज जीवित्पुत्रिका (जिउतिय) पर्व है जिसमें माँ अपने बच्चे की कुशलता के लिए पूरे २४ घंटे का निर्जाला उपवास करती है. कुछ लोगों के आग्रह पर माँ को लिखा एक खत शेयर कर रहा हूँ. यह खत मैने मदर्स डे के दिन लिखा था. वैसे लिखने तो कविता बैठा था, मगर जब २ पन्ने हुए तो वो एक चिट्ठी बन गयी थी. अगले दिन एक दोस्त को वह सुनाया तो उसने इसे घर भेजने की सलाह दी. मैं तो यहाँ तक भूल चुका था कि इंडियन पोस्ट चिट्ठी भी पहुचाती है. दोस्त के ही सहयोग से पोस्ट कर दिया. घर पर माँ इसे पढ़ कर रोते हुए सिर्फ़  इतना ही  बोली " ऐसा क्यूँ लिखते हो? "

वैसे कविता इस विचार से शुरू किया था कि माँ की जीवन में भूमिका कहाँ-कहाँ है, जो की अपने आप में हीं एक ग़लत सवाल है. क्योंकि अपना अस्तित्व ही माँ से है. फिर भी कुछ पंक्तियाँ बन गयी जो इस प्रकार हैं -


माँ! तू तो हमेशा ही वहाँ थी!

मुझे तो याद नहीं, लेकिन
पापा बताते हैं मुझे, कि
करवट मारते हुए जब मैं
पलंग से पहली बार गिरा था
माँ, मुझसे ज्यादा तू रोयी थी
मुझे गोद में ले पूरे रात न सोयी थी !

बचपन में जब तोतली बोली से पूछ्ता था,
यह क्या है? वह क्या है?
माँ, तू हीं थी वहाँ, मेरा शब्द कोष बढ़ाने के लिए!

खेलने में जब भी चोट लगाकर आता,
माँ, तू हीं थी वहाँ, पैरों पे हल्दी चूने का लेप लगाने के लिए!

जब भी आइसक्रीम वाले का भोपू सुनता,
माँ, तू हीं थी वहाँ, वो कीमती सिक्के देने के लिए!

शैतानी में जब भी तोड़-फोड़ मचाता,
माँ, तू हीं थी वहाँ, पापा से मुझे बचाने के लिए!

हद हो जाने पर जब पापा से पिटाई पड़ती,
माँ, तू हीं थी वहाँ, मेरे आँसू पोछ्ने, मुझे समझाने, सहलाने के लिए!
मुझे पता है माँ, मेरे साथ तू भी रोती थी!

कंचे खेलने के लिए पापा जब भी डाँटते और कंचे फेकने जाते,
माँ, तू हीं थी वहाँ, जो पापा से यह कह कंचे ले लेती कि तू फेंक देगी
मगर हर बार मुझे लौटा कर कहती कि अगले बार न दूँगी!

किसी खुशी में तू हो न हो,
माँ, शायद ही ऐसा दुख़ था जब तेरा साथ न था!
जब भी डर लगता, तेरे आँचल में ही सोता

दिन भर जाने कहीं भटका, थक-हार कर तेरा दामन ही थामा
वहीं शांति मिलती थी, चैन की नींद आती थी!

माँ, आज ज़माने की मज़बूरियों ने दूर कर दिया है मुझे
लेकिन हर हिचकी पर पता चल जाता है कि तू याद कर रही है मुझे!

बिमारी में भी मेरे लिए उपवास करती है,
महीनों तक मिश्री का प्रसाद रखती है,

जब भी मैं घर आता हूँ, तू वह प्रसाद खिलाती है
मैं झल्ला कर कहता हूँ
माह पुराना मिश्री का दाना अच्छा नहीं लगता है

महीनों तक सन्जोह कर रखने पर भी,
तू नही कहती, कि,
तुझे मेरा यह व्यवहार अच्छा नहीं लगता!

माँ, आज भी फोन पर मेरे पूछ्ने पर भी
अपने बारे में कम बताती हो,
मेरे बारे में ही ज़्यादा पूछती हो!

तेरे आशीर्वाद से मैं यहाँ अच्छा हूँ, माँ
ईश्वर से प्रार्थना है, तू सदा अच्छी रहे!

                                                             

Monday, September 23, 2013

मुद्दतों हुए माँ से मिले

'The Mother of Sisera' by Albert Joseph Moore.
मुद्दतों पहले एक शाम बिन बताये घर पहुँचा था
माँ आज भी शाम को चार रोटी अधिक बनाती है!

मुद्दतों पहले मजाक़ में ही माँ से कहा था, कि
तेरे आज के उपवास ने मुझे एक दुर्घटना से बचा लिया
माँ आज भी हर रविवार को उपवास रखती है !

मुद्दतों पहले जिस खिलौने के टूटने पर मैं खूब रोया था
माँ आज भी उस टूटे खिलौने को मेज पर सजा के रखती है !

मुद्दतों पहले मैंने माँ के जिस साड़ी में आसूँ पोछे थे
माँ आज भी उस साड़ी पर हाथ फेर रोया करती है !

मुद्दतों पहले मेरे बीमार होने पर
माँ ने बगल के दरगाह में मन्नत मांगी थी
माँ आज भी हर शाम उस दरगाह में सजदा करने जाती है !

मुद्दतों हुए माँ से मिले, उसकी आखों से वो दुनिया देखे
जिसमें परियां होती थी, राजा रानी की अठखेलियाँ होती थी
फिर एक सुहानी नींद होती थी !

मुद्दतों हुए माँ से मिले!