Wednesday, December 5, 2018

तुम्हारे शहर में ये धुआँ कहीं और से लाया गया है

तुम्हारे शहर में ये धुआँ कहीं और से लाया गया है
वक़्त रहते संभल जाओ अभी आग नहीं लगाया गया है!


बारूद का ढेर एक अरसे से दिमाग़ में जमाया गया है
तभी तो अफ़वा की चिंगारी को बुलवाया गया है!

जागे होते तो संभल गए होते, मसला तो ये है
साज़िश के तहत तुम्हें सोते हुए चलवाया गया है!

बादलों में हूर का हुस्न और कहीं रक्त से धूली धरती
तभी तो हवा में लटकता मकान बनवाया गया है!

कभी पैरों से ज़मीन को चूमते और होती बेपर्दा आँखें
तो देखते जहाँ को कितना सुंदर सजाया गया है!

कभी ख़ाली बैठो तोशादाबख़ुद से सवाल करो
तुमसे क्या क्या कह के क्या क्या करवाया गया है!!

Sunday, August 19, 2018

हमारे ग़म में कोई कमी न थी

हमारे ग़म में कोई कमी न थी
ये ज़िन्दगी यूँ ही रमी न थी

हर चिराग बुझा दी मेरे रक़ीब ने
मगर मेरी चाहत मौसमी न थी

वफायें धूल बन उड़ी हर सम्त
जिनके इरादों में नमी न थी

ज़ख्म फिर हुआ हरा बहार आयें
जो गुज़री हवा वो मातमी न थी

शबनम से मोहब्बत हुई 'शादाब'
फिर धूप से दोस्ती लाज़मी न थी

Sunday, June 3, 2018

अपने हीं लोगों में कहीं खो गए हम


अपने हीं लोगों में कहीं खो गए हम
ज़िंदा होते हुए भी क्यूँ सो गए हम।।

घायल, रोता हुआ गिड़गिड़ाता रहा
बचते हुए सड़क पार हो गए हम।।

भगवान की दुहाई सुनाई न पड़ी
मगर फ़िल्मी गानों पे रो गए हम।।

ज़िन्दगी भर भागते रहे जिससे
आखिर में उसी मिट्टी के हो गए हम।।

कुछ सवालों में उलझे रहे ताउम्र
ख़ुद एक सवाल बन खो गए हम।।

गठरी लिए फिरते हैं अपने खाबों की
क्या सोचा था और क्या हो गए हम।।


~पंकज कुमार "शादाब"