हमने खुद अपनी सज़ा मक़बूल की है
अँधेरे में रहकर चुप रहना कबूल की है
आपस की आग सुलह कर बुझा लेते
बाहरी हवाओं को बुलाने की भूल की है
एक ज़ख्म तुम्हारा एक दर्द हमारा
कैसी ज़ोर सौदेबाजी की वसूल की है ?
सरहद की लक़ीर दरिया-ए-लहू हुआ
कैसे मोहब्बत की बाते फिजूल की है
हुआ करते थें कभी बाग़ बगीचे जहाँ
आपसी रंजिश में ज़र्रे ज़र्रे को शूल की है
नज़र खुली भी 'शादाब' तो ऐसे कि
हर मंज़र को पहले से ही धूल की है
अँधेरे में रहकर चुप रहना कबूल की है
आपस की आग सुलह कर बुझा लेते
बाहरी हवाओं को बुलाने की भूल की है
एक ज़ख्म तुम्हारा एक दर्द हमारा
कैसी ज़ोर सौदेबाजी की वसूल की है ?
सरहद की लक़ीर दरिया-ए-लहू हुआ
कैसे मोहब्बत की बाते फिजूल की है
हुआ करते थें कभी बाग़ बगीचे जहाँ
आपसी रंजिश में ज़र्रे ज़र्रे को शूल की है
नज़र खुली भी 'शादाब' तो ऐसे कि
हर मंज़र को पहले से ही धूल की है