वक़्त रहते संभल जाओ अभी आग नहीं लगाया गया है!
बारूद का ढेर एक अरसे से दिमाग़ में जमाया गया है
तभी तो अफ़वा की चिंगारी को बुलवाया गया है!
जागे होते तो संभल गए होते, मसला तो ये है
साज़िश के तहत तुम्हें सोते हुए चलवाया गया है!
बादलों में हूर का हुस्न और कहीं रक्त से धूली धरती
तभी तो हवा में लटकता मकान बनवाया गया है!
कभी पैरों से ज़मीन को चूमते और होती बेपर्दा आँखें
तो देखते जहाँ को कितना सुंदर सजाया गया है!
कभी ख़ाली बैठो तो ‘शादाब’ ख़ुद से सवाल करो
तुमसे क्या क्या कह के क्या क्या करवाया गया है!!