Saturday, June 28, 2014

फिर से एक खाब देखने लगा हूँ मैं

फिर से खोया खोया सा रहने लगा हूँ मैं
फिर से एक खाब देखने लगा हूँ मैं !!

पलकों से शबनम खोया था कभी
हवा छोड़ दरिया से पूछने लगा हूँ मैं !!

मतलब बेमतलब की बातें बहुत हुई
अब तो पागलपन चखने लगा हूँ मैं !!

मिलना बिछुड़ना एक खेल सा हो गया
आज़ादी की जंजीर भी तोड़ने लगा हूँ मैं !!

बेस्वाद जान पड़ता हर लज़ीज ख़ुराक
बदलाव के लिए फ़ाक़ा करने लगा हूँ मैं !!

हुआ मयस्सर जो भी हासिले हस्ती "पंकज "
वक़्त हुआ कूच का पाथेय जुगाड़ने लगा हूँ मैं !!


Friday, June 27, 2014

संवाद खुद से

"तुम चाहते क्या हो ?"
मैं पूँछता हूँ मेरे दूसरे मैं से
जो हरदम पीछे से आवाज़ लगाता है
कभी कभार सामने आने का साहस भी कर लेता है

वो घबराते हुए कहता है
-"मुझे भी कभी तुम बनने दो!
जब खाली हो तब हीं
जब दुनियादारी से रिहा हो जाओ तब हीं
मैं भी कभी अपनी आँखों से खुद को देखूँ 
तुमने जैसा बताया है क्या मैं वैसा ही हूँ?
इस दुनिया के लायक नहीं?

क्या मेरी कल्पना बिल्कुल अलग है
इस दुनिया से
इसके लोगों से
इनकी रवायतें से
और वो तहज़ीब !

क्या मुझे दो घड़ी साँस लेने भर
की भी हवा नहीं मिलेगी
क्या लोग इतने मतलबी है?
मेरी संवेदना क्या सही में कोई नहीं सुनेगा
क्या लोग इतने व्यस्त हैं ?

मैं छूना चाहता हूँ
भावनाओं को असली में
देखना चाहता हूँ
ख़ाबों को हकीकत से
अपने होठों से कहना चाहता हूँ
जो मैंने लिखे हैं
अपने भावों को
मेरे शब्दों में "

मैं सुनता हूँ अक़्सर खुद को
मेरे दूसरे मैं को
बस सुनता हूँ
और समझता हूँ
उसे चोट पहुचाना नहीं चाहता
आशा, अपेक्षा बेहतर है वास्तविकता से !

Thursday, June 19, 2014

फरियाद

जहां को इक खुबसूरत दुल्हन कर दे
तू पलकें उठा और इसे रोशन  कर दे

कब तलक रहेगा बेनाम बेहुस्न ज़माना
अपने अक्स-ए-हुस्न से सब दफ़न कर दे

ज़हर लिए फिरता है हर ज़बान यहाँ
लबों पे किमाम, अल्फ़ाज़ शेरो सुखन कर दे

हर कोई अपना हर कोई मेहरबाँ
ज़िन्दगी में रंग रहे किसी को तो दुश्मन कर दे

बेज़ार फिजायें बेरंग समां बेमन सबा
इक उम्र के लिए इस बस्ती को गुलशन कर दे

बचपन की यादें छेड़ती हैं जवानी की सफर में
हर शहर को बाग़ हर ईमारत को जामुन कर दे

यादों के रास्ते सदायें चली आती हैं उसकी
कभी खुशबू भी आये कोई मोड़ चन्दन कर दे
  

Tuesday, June 10, 2014

आग - फिर मुखर होगी

जहाँ छोटी थी लोगों ने दुलारा
बड़ी थी कहीं पे,
तो लोगों ने इसे गाया
कितने ही मिसालें दी गयी 
इसकी कुर्बानी की
लड़ाकू ज़ज्बे की

मगर इंसान ने  इसे
बाँध कर रखना चाहा
हमेशा
कुछ जगह पे ही
बसने
खेलने, लहराने की अनुमति दी

ये लगों को नज़र देती रही
उनकी भी नज़र इसपे रही

पवित्र, निर्मल, नाजुक
मस्तानी, लहराती जैसे रूपकों से सम्बोधित  
जब वो फैलना चाही 
अपनी मर्जी से बंधन तोड़
कहीं भी बढ़ना चाही
तो खटक गयी
इंसान की नज़र में
घेरने लगे लोग
उसकी आज़ादी से जलने लगे लोग

वो सहमी हुई भागती रही
अपने पैरों से निर्मल करते
सूखे पेड़ों को
खेत खलिहानों को
गंदे पड़े झोपड़ों को
तो कहीं मरे हुए शहरों को
मगर दबोच ली गयी
कुछ घड़ी जीने के बाद
बुझा दी गयी
बलशाली इंसानों की हवस में
दब गयी
एक घुटन
एक सड़ाँध छोड़
उन दबाई गयी उमंगों की
आज़ाद रहने की ख्वाहिश की

और छोड़ गयी निशानी
अपने वजूद की
दूसरों के लिए
फिर बन्धन तोड़
आज़ाद होने के लिए