अपने हीं लोगों में कहीं खो गए हम
ज़िंदा होते हुए भी क्यूँ सो गए हम।।
घायल, रोता हुआ गिड़गिड़ाता रहा
बचते हुए सड़क पार हो गए हम।।
भगवान की दुहाई सुनाई न पड़ी
मगर फ़िल्मी गानों पे रो गए हम।।
ज़िन्दगी भर भागते रहे जिससे
आखिर में उसी मिट्टी के हो गए हम।।
कुछ सवालों में उलझे रहे ताउम्र
ख़ुद एक सवाल बन खो गए हम।।
गठरी लिए फिरते हैं अपने खाबों की
क्या सोचा था और क्या हो गए हम।।
~पंकज कुमार "शादाब"