प्रथम अनल द्वापर जल
अन्दर अनल बाहर है जल
जल के बगल में धरा
कहीं जल कहीं धरा
ऊपर लहराता है पवन
धरा को छूता है पवन
पवन को बांधे है गगन
धरा को ढकें है गगन
पंचों मिले तो बने यह तन
कहें इसे मिट्टी का या हवा का ?
आग भी है समाया तो जल भी है भरा!
शुन्य से आयें सब जाना भी है शुन्य में
है सब में हीं यही फिर भी हैं अलग
कहीं आग ने अपना तेज पकड़ा
तो कहीं जल ने शीतलता दी
कहीं पवन प्रचंड रूप धरा
तो कहीं धरा ने धीरज दी
शुन्य सबका करता है इंतजार
मुस्कुराता है
कब तक भागोगे ?
जाओगे कहाँ ? …….
अन्दर अनल बाहर है जल
जल के बगल में धरा
कहीं जल कहीं धरा
ऊपर लहराता है पवन
धरा को छूता है पवन
पवन को बांधे है गगन
धरा को ढकें है गगन
पंचों मिले तो बने यह तन
कहें इसे मिट्टी का या हवा का ?
आग भी है समाया तो जल भी है भरा!
शुन्य से आयें सब जाना भी है शुन्य में
है सब में हीं यही फिर भी हैं अलग
कहीं आग ने अपना तेज पकड़ा
तो कहीं जल ने शीतलता दी
कहीं पवन प्रचंड रूप धरा
तो कहीं धरा ने धीरज दी
शुन्य सबका करता है इंतजार
मुस्कुराता है
कब तक भागोगे ?
जाओगे कहाँ ? …….
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