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Wednesday, July 30, 2014

आक़िबत

एक हँसी के साथ शुरू हुई
वो घटना
दो चार और हँसे
देखते ही देखते
हँसी का संक्रमण ऐसा हुआ
सभी हँसने लगे
पूरा क़स्बा
फिर शहर
सारा मुल्क
सारी दुनिया
बिना जाने-समझे सभी हँस रहे थे
मानो कारण जानने की जरूरत हो ही नहीं
हँसी, हवाओं के साथ
खुशबू की तरह
सब जगह समा गयी

कहते हैं इसी हाल में
वो दुनिया कहीं खो गयी
अनंत ब्रह्मांड में

हालाँकि ऐसे में
कुछ कहने सुनने की जरूरत ही क्या रह गयी 
इससे बेहतर अंजाम हो भी क्या सकता था 
किसी दुनिया के वजूद का  !

(आक़िबत - end/conclusion/future life)

Thursday, June 19, 2014

फरियाद

जहां को इक खुबसूरत दुल्हन कर दे
तू पलकें उठा और इसे रोशन  कर दे

कब तलक रहेगा बेनाम बेहुस्न ज़माना
अपने अक्स-ए-हुस्न से सब दफ़न कर दे

ज़हर लिए फिरता है हर ज़बान यहाँ
लबों पे किमाम, अल्फ़ाज़ शेरो सुखन कर दे

हर कोई अपना हर कोई मेहरबाँ
ज़िन्दगी में रंग रहे किसी को तो दुश्मन कर दे

बेज़ार फिजायें बेरंग समां बेमन सबा
इक उम्र के लिए इस बस्ती को गुलशन कर दे

बचपन की यादें छेड़ती हैं जवानी की सफर में
हर शहर को बाग़ हर ईमारत को जामुन कर दे

यादों के रास्ते सदायें चली आती हैं उसकी
कभी खुशबू भी आये कोई मोड़ चन्दन कर दे
  

Tuesday, March 25, 2014

दौड़ता पत्ता

सड़क की दूसरी ओर
डिवाइडर से सटकर
वो सूखा पत्ता हवा से दौड़ लगा रहा था
और अचानक से रुक गया
सुसता रहा था या हार चूका था
कह नहीं सकता !

उसने सर उठा कर मेरी ओर देखा
फिर आगे देखा
थोड़ा हिला मगर ठहर गया
शायद थकान बाकी थी
फिर सर उठा आगे देखा
हांफते हुए झुक कर साँस लेते हुए धावक के जैसे
मुस्कुरा रहा था या पछता रहा था
कह नहीं सकता !

मेरी नज़र में
आगे पीछे कोई और पत्ता न था
मगर वो बेचैन था
शायद उसे मालूम होगा उसके प्रतिद्वंदियों का ठिकाना
दूर पे ही सही शायद उसे दिख भी रहे होंगे  
हो सकता है गुजरे हवा को भी वह देख रहा होगा
अपना मुकाम भी जान रहा होगा
डरा था या हिम्मत जुगाड़ रहा था
कह नहीं सकता !

तभी हवा का एक झोका आया
और वह फिर दौड़ा बिना मुझे देखे
लगा इस बार हवा को पछाड़ेगा, लेकिन
कुछ दूर जाके फिर रुका
मै अपनी राह बढ़ता रहा
बराबर पहुच कर उसे देखा
उसने भी मुझे देखा 
मैंने सोचा
वह न जाने किस अनजानी दौड़ में दौड़ रहा है
कब से भाग रहा है कुछ खबर भी है रास्ते की ?....

वह मेरे बारे में ऐसा ही सोच रहा होगा ?
कह नहीं सकता !

Saturday, March 15, 2014

रात का सफ़र

यह रात कोई अलग न थी
मगर न जाने कहाँ से गाँव आया था
जहाँ कई बार छुट्टियों में गया था ।
- गाँव आया था सपने में
लेके सदायें उन हिस्सों की
जो मैंने छोड़ आये थे वहीँ आखिरी छुट्टी में
तो चल दिया मैं भी साथ फिर से
देखा 

खाट पे सोती रात
छत पे होती बात
आधे गिने तारों से साथ
दो छोटी उँगलियों का इशारा
चार आँखों में गहराता एक खोज
एक तारे समूह का कहीं खो जाना
मगर फिर होठों पे लहराती मुस्कान
एक गुमान
एक नए समूह की पहचान
चाँद के बगल से गुजरता चितकबरा बादल
एक घेरे से दूसरे घेरे में घुसता चाँद
दोनों दिमाग में एक सवाल
आखिर चाँद का क्या है मिज़ाज ?
एक दिमाग ढूँढता जवाब
दूसरा नए तारे गिनता चाँद के पीछे के तारे

और फिर हवा की आवाज़
रात्रि का पैगाम
ठंढ का एहसास
चादर की खिचान
आँख मूँद रात्रि का सम्मान

रात भर देखता रहा
दो मुस्कान
खुद को और भाई को

उठा सुबह
साथ लेके वही मुस्कान !

Sunday, March 9, 2014

एक डर है

एक डर है
जो चाहा उसके न मिलने का
जो न चाहा उसके हो जाने का

एक डर है
जो कमाया उसके खो जाने का
जो छोड़ा उसके मिल जाने का

एक डर है
जो बनाया उसके गिर जाने का
जो गिराया उसके उठ जाने का

एक डर है
साथी के सफ़र में छूट जाने का
एक मोड़ पे रास्ता ख़त्म हो जाने का

एक डर है
जिसे तराशा उसके टूट जाने का
जिसे सराहा उसके चूभ जाने का

एक डर है
बेवक़्त चिराग के बुझ जाने का
बेसबब सबकुछ बिखर जाने का

एक डर है
साँसों के बेजुबाँ हो जाने का
धड़कनों का बेलगाम हो जाने का

एक डर है
तन्हाई में खुद के खो जाने का
मुझसे तन्हाई का रूठ जाने का

एक डर है
चश्में जज़्बात के सूख जाने का
सर्द एहसास के जम जाने का

एक डर है
इस डर से डर कर रुक जाने का
इस डर का ज़हन में घर कर जाने का

Friday, February 28, 2014

तेरी रोशनी में !

मैंने देखा खुद को
चलते हवाओं पे, तुम्हारी ओर
और तुम्हे बादलों पर
चुनते कपास के फूल
मुस्कुराते हुए
लाल रंग के आँसुओं के साथ रोते सूरज को
तुम कर रही थी विदा
दूसरी ओर इठलाता
मन ही मन मुस्काता, चाँद
जो बढ़ रहा था तुम्हारी ओर 
देखने खुद को बेदाग
तुम्हारे चेहरे में
और सूरज के आसुओं के छींटे
तुम्हारे होठों पे
टिमटिमाते तारों को
तुम्हारी आँखों से!
महसूस करना चाहता
बादल की सलवटें
तुम्हारी हथेलियों से
बिना बिखेरे बिना बिगाड़े!
तुम्हारे जरिये चाहता
जीना इक नए ढंग से
नयी पहचान  के साथ
तेरी बेबोझिल रोशनी में
चाहता निपटाना सूरज का हिसाब
उतार कर उसका प्रकाश !
और मैं
देखता दूर से, तुझे
तेरी रोशनी में
चाँद को
तेरी रोशनी में
बादल को
तेरी रोशनी में 
मुस्कुराता
तेरी रोशनी में !

Wednesday, February 26, 2014

कवि की व्यथा

जब भी सुनता हूँ
कवियों की कहानी
सबमें एक ख़ास बात होती है
सबने कुछ अलग जिया
किसी ने गरीबी देखी
किसी ने किस्मत की पहेली देखी
कहीं कोई गर्त से उठा
कोई रहा सड़क पे लेटा
गंगा किसी के जज़बात की उद्गार बनी
यमुना किसी के प्रेम की प्रमाण बनी
सबने नहीं तो अधिकों ने
अपने चंचल मन को
सुना कोयलों के कूँ में
उन आम के बगीचों में
गाँव के खुले मैदान में

तो मैं पूछता हूँ खुद से
अपने स्रोत से
मैं तो बीच में फंस गया!
न गरीबी की मार झेली
न अमीरी के मज़े लुटे
पला उस परिवार में
जहां सब कुछ यथेष्ट था
न कम न ज्यादा
न हीं नदी की निर्मल धार देखी
जो देखा वो छठ के अर्घ के लिए
गन्दा दामोदर देखा
जिसमें कहने पर डुबकी लगा भी लिए
तो फिर से नहाना जरूरी होता
न खुले मैदान थे
न आसमान को छूते पर्वत
थे तो बौने से पठारी पहाड़ियां
अधनंगे चट्टानों के टीले
जिनपे उगी थी बौनी झाड़ियां
छितरे बितरे से
और कोयले की खान
कोयले जैसी काली
धूल के गुबार हवाओं के साथ
दूर दूर तक फैलते
मगर अस्पष्ट विस्तार
धूल जो ठहरा
कब बैठ जाये और कब उड़ जाये
कोई ठिकाना न था
संक्षेप में कहूँ तो
वातावरण शुद्ध न था
जो भी पेड़ पौधे लोगों ने परिश्रम से उगाये थे
कोयले की चादर उनपे भी चढ़ी थी
आखिर परिवेश तो वही था 
तो फिर कोयल कहाँ से आते
काले आमों पे कैसे गाते?

तो फिर मैं क्या लिखूं ?
मन क्यूँ चाहता है?
कवि बनना!
अब कोयले की बखान करूँ ?
बौने पहाड़ों की शोभा गाऊँ ?
या उन धूल के गुबारों की दास्ताँ सुनाऊँ
जो बिना किसी कारवां के गुज़रे ही बन जाते?
कैसे और क्या  लिखूँ ?
क्या सुनाऊँ ?

Sunday, February 16, 2014

काश कुछ ऐसा हो कि

काश कुछ ऐसा हो कि 
हम जो कह न पायें वो बात समझ जाओ
हम जो लिख न पायें वो जज्बात समझ जाओ
और जब पिघले ये दूरी
तुम वो रास्ता वो हालात समझ जाओ !

काश कुछ ऐसा हो कि
हम जो छोड़ न पायें वो निशाँ समझ जाओ
हम जो साथ न लायें वो कारवाँ समझ जाओ
मजबूरी दुनियादारी के बीच फसी
तुम वो अनकही दास्ताँ समझ जाओ !

काश कुछ ऐसा हो कि
हम जो देख न पायें वो ख्वाब समझ जाओ
हम जो समझ न पायें वो हिसाब समझ जाओ
बेअसर होती अपनी कहानी
तुम वो ज़िन्दगी की किताब समझ जाओ

काश कुछ ऐसा हो  कि
हम जो ला न पाये वो सौगात समझ जाओ
हम जो बचा न पाये वो आघात समझ जाओ
भीड़ में भटकती है परछाई अपनी
तुम वो साज़िश करती कायनात समझ जाओ !