Monday, June 10, 2013

विडम्बना


दृश्य-1
खुले मैदान में
कबूतर दाना चुग रहे हैं,
बार-बार उड़कर-घूमकर
किसी को ढूंढ़ रहे है!
मन ही मन सोच रहे हैं
दाना किसने डाला है?
दिल से दुआएं दे रहे हैं
अनजाने को ही शुक्रिया बोल रहे हैं

उस अनजाने ने,
लम्बे सफ़र में विश्राम दिया है
भड़क रहे भूख को शांत किया है
हतप्रभ परिंदों पर एहसान किया है
मानव के श्रेष्ट होने का प्रमाण दिया है
कबूतर कृतज्ञता के साथ
उसके होने के अहसास पे,
चैन से दाना चुग रहे हैं!

दूर चौराहे पे बैठा कोई,
कबूतरों की बेताबी समझ रहा है, और
मन ही मन मुस्कुरा रहा है!

दृश्य-2
मंदिर के वृहत प्रवेश-द्वार पे
एक बड़े से टाइल पे,
किसी का नाम लिखा है!

हर श्रद्धालु वह नाम पढ़ रहा है
मन ही मन उसका मूल्य आंक रहा है
सोच रहा है
बड़े नाम वाले ने दान दिया है
श्रधा हो ना हो, अर्थ का निवेश किया है!

बगल के ही कोने में
एक बूढ़ा, अपाहिज भिखारी,
दिल की दुआवों को दिल में रोक रखा है
चंद सिक्कों से टूटने वाली
बांध जोड़ रखा है
वह भी उस बड़े नाम वाले की राह देख रहा है

उसे क्या पता
बड़े शहर की बड़ी हवेली में वह बड़े नाम वाला
नयी टइलों पे नाम लिखवा रहा है! 

शिकारी और शिकार



एक सबल एक तेज
जीवन मृत्यु का कैसा खेल?
एक बल से जान ले, अपना भूख मिटाता
एक तीव्रता से, कई बार अपनी जान बचाता!

सबल सर्वदा अजेय नहीं
तेज हमेशा हीं विजय नहीं!
कभी सबल भूख से मरता
कभी तेज जान से बचता!
जीवन मृत्यु के इस खेल में
दोनों ने ही शत्रु बदले हैं
जीत पे एक ने भूख मिटाई,
दूजे ने प्राण गवाये हैं!

इस प्रकृति की रचाना में,
कोई दोष, निर्दोष
यह प्रकृति प्रवाह है
जीना एक मात्र चाह है!

Sunday, May 5, 2013

गाँठें!



टूटने पे जोड़ने से बनी, नहीं!
उलझन से बनी गाँठें!

हर उलझन बनाती है गाँठ
कुछ एक बार, कुछ कई बार
कभी छोटी सी, कभी मोटी सी
न जाने कितनी हीं तरह की होती हैं ये गाँठें!

धागे के अस्तित्व का आभास कराती हैं ये गाँठें
हर धागे को अलग पहचान दिलाती हैं ये गाँठें
बची हुई उलझनों को सीधा कर देती हैं ये गाँठें
टूट रहे धागों में भी जान डाल देतीं हैं ये गाँठें !

अधूरे वादों का काफिला हैं ये गांठें
अनजाने में ही सही
हो गयी भूल की दास्ताँ हैं ये गाठें!

कुछ सुलझे पल, कुछ उलझी यादों
की निशानी हैं ये गाँठें
बंद किये मुट्ठी में
न जाने कितनी हीं ख्वाहिशें हैं ये गाँठें !

अंतर्नाद



कुछ तो रहने दो हमारे लिए, कि
जो हम हीं देखें, हम हीं सोचे
हम हीं केवल मुस्कायें

खुली हुई हैं सारी खिड़कियाँ
एक खुलना है बाकी
रहने दो इसे बंद ही, ताकि
अकेले में हम खोले और मुस्कायें

बात करें हम अकेले में,
जो भी है उस अंधरे में,
आवाज़ हमेशा ही आती है
कुछ अनसुनी, कुछ अनसुलझी,
कभी धीमी, कभी तेज
पर है वह अलग, दुनिया से गैर
सुन समझ कुछ नहीं आता है,
फिर भी दिल सुकून पाता है

कुछ तो रहने दो हमारे लिए, कि
जो हम हीं देखें, हम हीं सोचे
हम हीं केवल मुस्कायें