Sunday, May 5, 2013

अंतर्नाद



कुछ तो रहने दो हमारे लिए, कि
जो हम हीं देखें, हम हीं सोचे
हम हीं केवल मुस्कायें

खुली हुई हैं सारी खिड़कियाँ
एक खुलना है बाकी
रहने दो इसे बंद ही, ताकि
अकेले में हम खोले और मुस्कायें

बात करें हम अकेले में,
जो भी है उस अंधरे में,
आवाज़ हमेशा ही आती है
कुछ अनसुनी, कुछ अनसुलझी,
कभी धीमी, कभी तेज
पर है वह अलग, दुनिया से गैर
सुन समझ कुछ नहीं आता है,
फिर भी दिल सुकून पाता है

कुछ तो रहने दो हमारे लिए, कि
जो हम हीं देखें, हम हीं सोचे
हम हीं केवल मुस्कायें

Thursday, April 25, 2013

बलात्कार- ऐसा क्यों?



क्षणिक सुख के आवेश में
किसी को
जीवन पर्यन्त पीड़ा क्यों?

कुछ अबोध, कुछ बोध
पीड़ा तो पीड़ा है,
इन्हें सहना पड़ा क्यों?

उफान तो उठता रहा है
हमेशा से हीं सबमें, किन्तु कहीं पे
तट तोड़ सिंधु लहराया क्यों?

सिंधु अपनी गरिमा भूल
पानी ही पानी में
अपनी मर्यादा मिलाया क्यों?

फूलों का है संसार
फूलों से हीं है संसार
सदा सौन्दर्य ले निहार
ये इत्र की आवेगी चाह क्यों?

यश नहीं, मान नहीं, भय भी नहीं
कुछ तो हो संकोच
ये इंसानियत हुई हैवान क्यों?

Sunday, April 21, 2013

ख़ामोशी अच्छी है!



ये ख़ामोशी अच्छी है, लेकिन
ध्यान रहे कि ये सन्नाटे में तब्दील हो जाये
जहां हर आहट पे रूह काँप उठे
पहचानी आवाज़ पे भी दिल घबरा जाये!

ये प्रशांति अच्छी है, लेकिन
ध्यान रहे कि ये वीराने में तब्दील हो जाये
जहां जानवर भी आने से डरे
पक्षी अपना घोसला भी बनाये!

ये सादगी अच्छी है, लेकिन
ध्यान रहे कि ये गुमनामी में तब्दील हो जाये
जहां चहरे की कोई पहचान हो
नाहीं मदद के लिए कोई हाथ बढ़ाये!

ये नर्म-मिजाजी अच्छी है, लेकिन
ध्यान रहे कि ये शिथिलता में तब्दील हो जाये
जहां दुसरो के साथ खुद की भी पीड़ा का अहसास ना हो
भड़क रही आग में पानी डालना भी दुस्वार हो जाये!