घनघोर तिमिर के आँचल में
बसती एक दीप्ती उज्जवल है
हरती मानस के कुहे को
होती जब भी उदय है!
रोशन होता मन का हर कोना
शीतल कोमल उसकी अरुणिमा से
आस वासना सब मिट जाता
अनुपम ज्योति की आभा से!
नभ क्षितिज के संगम पे
जब भी नयन पग बढाता है
पाकर विहवल उदय दृश्य
तन मन को हर्षाता है!
भोर भई, भोर भई
मन हरदम ही चिल्लाता है
पाकर प्रेम ज्योति के आलिंगन को
घड़ी घड़ी हर्ष विकल हो जाता है!
मधुप सुकोमल पावस की वल्लरियाँ
उस ज्योति में इठलाती हैं
बंद चमेली के पंखुड़ियों पे
ओस की बूँद शर्माती है !
ज्योति उदय की बेला पावस के संग
खेलती, मानस जगती को नचाती है
घुमड़ घुमड़ के काले बदल
किरण सोख, नभमानस को भिंगाते हैं !
प्रमोद मनाता है जगत
हुई ज्योति की अनुकम्पा है
गाँव शहर के जल कुंडों में
पंकज भी हर्ष मनाता है!
बसती एक दीप्ती उज्जवल है
हरती मानस के कुहे को
होती जब भी उदय है!
रोशन होता मन का हर कोना
शीतल कोमल उसकी अरुणिमा से
आस वासना सब मिट जाता
अनुपम ज्योति की आभा से!
नभ क्षितिज के संगम पे
जब भी नयन पग बढाता है
पाकर विहवल उदय दृश्य
तन मन को हर्षाता है!
भोर भई, भोर भई
मन हरदम ही चिल्लाता है
पाकर प्रेम ज्योति के आलिंगन को
घड़ी घड़ी हर्ष विकल हो जाता है!
मधुप सुकोमल पावस की वल्लरियाँ
उस ज्योति में इठलाती हैं
बंद चमेली के पंखुड़ियों पे
ओस की बूँद शर्माती है !
ज्योति उदय की बेला पावस के संग
खेलती, मानस जगती को नचाती है
घुमड़ घुमड़ के काले बदल
किरण सोख, नभमानस को भिंगाते हैं !
प्रमोद मनाता है जगत
हुई ज्योति की अनुकम्पा है
गाँव शहर के जल कुंडों में
पंकज भी हर्ष मनाता है!
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