Tuesday, June 10, 2014

आग - फिर मुखर होगी

जहाँ छोटी थी लोगों ने दुलारा
बड़ी थी कहीं पे,
तो लोगों ने इसे गाया
कितने ही मिसालें दी गयी 
इसकी कुर्बानी की
लड़ाकू ज़ज्बे की

मगर इंसान ने  इसे
बाँध कर रखना चाहा
हमेशा
कुछ जगह पे ही
बसने
खेलने, लहराने की अनुमति दी

ये लगों को नज़र देती रही
उनकी भी नज़र इसपे रही

पवित्र, निर्मल, नाजुक
मस्तानी, लहराती जैसे रूपकों से सम्बोधित  
जब वो फैलना चाही 
अपनी मर्जी से बंधन तोड़
कहीं भी बढ़ना चाही
तो खटक गयी
इंसान की नज़र में
घेरने लगे लोग
उसकी आज़ादी से जलने लगे लोग

वो सहमी हुई भागती रही
अपने पैरों से निर्मल करते
सूखे पेड़ों को
खेत खलिहानों को
गंदे पड़े झोपड़ों को
तो कहीं मरे हुए शहरों को
मगर दबोच ली गयी
कुछ घड़ी जीने के बाद
बुझा दी गयी
बलशाली इंसानों की हवस में
दब गयी
एक घुटन
एक सड़ाँध छोड़
उन दबाई गयी उमंगों की
आज़ाद रहने की ख्वाहिश की

और छोड़ गयी निशानी
अपने वजूद की
दूसरों के लिए
फिर बन्धन तोड़
आज़ाद होने के लिए 


No comments: