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Sunday, May 11, 2014

माँ तो माँ ही होती है

बच्चे की सलामती के लिए मंदिर मज़ार भटकती है
वो हिन्दू मुस्लमान नहीं, माँ तो माँ ही होती है

मुझसे पहले होता है उसे मेरे दर्द का एहसास
मेरी माँ सपने में भी मेरा ख्याल रखती है

कहता हूँ यहाँ सब कुछ है और मैं भी अच्छा हूँ
बेटा दूर है सोचकर माँ फिर भी उपवास करती है

एक बेटे के पास होकर भी दुसरे की चिंता करती है
ज़माने पे नहीं है उसे भरोसा अपने दुआओं तले रखती है

उसके उम्र से लगता है थक गयी है अब आराम करे
मगर मेरे बिमारी पे मेरी चाकरी के लिए तैयार रहती है

कैसे कहूँ फुर्सत नहीं हैं अबकी बार काम बहुत है
मगर उसे तो केवल मुझे देखने भर की तमन्ना रहती है

डरता हूँ केवल जुदा होने से वरना मुझे यक़ीन है
दूसरे जहां में भी माँ की दुआएं काम करती है


Friday, April 18, 2014

गाँव वैसे नहीं बदला

पिछले हफ्ते अरसो बाद अपना गाँव देखा।  सोचा था पूरा बदल गया होगा मगर पाया वही बचपन का गाँव कुछ नए जेवर पहने। उन यादों के एक हिस्से को ग़ज़ल में समेटने की कोशिश -

यहां लोगों का मिट्टी से रिश्ता बाकी है
पक्की सड़क से वो कच्चा रास्ता बाकी है !!

हर मुसीबत में लोग भागे चले आते हैं
आदमी का इंसानियत से राब्ता बाकी है  !!

एक पैर खड़ा बगुला वैसे हीं तकता है
कीचड़ में भी मछली ज़िंदा बाकी है !!

गाँव के बूढ़े भी नहीं जानते जिसकी उम्र 
उस बूढ़े पीपल पे अब भी पत्ता बाकी है !!

डाकिये को आज भी याद है सबका नाम 
पुराने मकान पे टंगा लाल डब्बा बाकी है !!

गाँव से बाहर बरगद के नीचे कुएं पे
सबके लिए एक बाल्टी रक्खा बाकी है !!

सूरज से पहले हीं लोगों को जगाता
मंदिर में लटका पुराना घन्टा बाकी है !!

सुबह सुबह खुली हवा में गाती कोयल 
शाम को लौटते तोते का जत्था बाकी है !!

पतली क्यारियों के होकर जाते हैं लोग वहाँ
खेतों के बीच देवी स्थान पे लहराता झंडा बाकी है !!

सुबह शाम उठता है धुँआ कुछ आँगन से
पक्के छत पे सूखता कच्चा घड़ा बाकी है !!

पुराने खम्भों पे नयी तारें बिछ गयी हैं
बिजली है फिर भी हाथ वाला पंखा बाकी है !!

फसलों की खशबू साथ ले चलती है हवा
उसमें अब भी वही निश्छलता बाकी है !!

पक्की सड़क से वो कच्चा रास्ता बाकी है !!

Friday, January 24, 2014

विक्षिप्त दुविधा

टिमटिमाती रात की रंगीनियों में
आतुरता से आश्रय ढूँढता मन,
जब खुद को हारा और भुला हुआ पाता  है 
तो उसे सुनाई देते हैं- वही गूँजते शब्द
"पाश ","मुक्तिबोध" और "मंटो"  के शब्द
जो उस सहमें हुए मन को
भटकाव की सीमा
गहराई और
नग्नता दिखा जाते हैं

और विक्षिप्त मन लाकर पटक दिया जाता है
उस चौराहे पर
जिससे जाने वाले सारे रास्ते भरे पड़े हैं -
कहीं ज़िंदा लाशों से
कहीं चीखते सपनों से
कहीं बेसुध वादों से और
कहीं झगड़ते विचारों से

तब दुविधा और घुटन के बीच अवलोकन होता है
अनुभव का,
और चयन  बेहतर रास्ते का 
फिर सफ़र शुरू होता है-
लाशों पर काँपते हल्के, मगर
मजबूत क़दमों का,
फिसलन से बचने की ज़दोजहद के साथ

कुंठित मन चला जाता है 
चिर परिचित लाशों के सड़क पे
जगह जगह पर मुँह छुपाते
अपनी लाशों से !