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Thursday, February 5, 2015

गिरने के डर से गिरे जा रहे हैं

Painting by Vincent van Gogh
गिरने के डर से गिरे जा रहे हैं
मरने से पहले ही मरे जा रहे हैं

ज़िन्दगी का अजीब दौर है यह
जो भी काम मिला करे जा रहे हैं

काँटों ने इल्ज़ाम क्या लगाया
फूलों के रास्ते भी बुहारे जा रहे हैं

हौसले की बुनियाद रिसी भी नहीं
नये मकान तक भरे जा रहे हैं

आईने में अपनी शक्ल देखी भी नहीं 
कि घबरा कर खुद से परे जा रहे हैं

हमें मालूम है बिखरने की हद
तब भी सँवरने से डरे जा रहे हैं

कोई तो ग़लती निकालो हिसाब में
'शादाब' ढेरों इल्ज़ाम मरे जा रहे हैं

Sunday, May 11, 2014

माँ तो माँ ही होती है

बच्चे की सलामती के लिए मंदिर मज़ार भटकती है
वो हिन्दू मुस्लमान नहीं, माँ तो माँ ही होती है

मुझसे पहले होता है उसे मेरे दर्द का एहसास
मेरी माँ सपने में भी मेरा ख्याल रखती है

कहता हूँ यहाँ सब कुछ है और मैं भी अच्छा हूँ
बेटा दूर है सोचकर माँ फिर भी उपवास करती है

एक बेटे के पास होकर भी दुसरे की चिंता करती है
ज़माने पे नहीं है उसे भरोसा अपने दुआओं तले रखती है

उसके उम्र से लगता है थक गयी है अब आराम करे
मगर मेरे बिमारी पे मेरी चाकरी के लिए तैयार रहती है

कैसे कहूँ फुर्सत नहीं हैं अबकी बार काम बहुत है
मगर उसे तो केवल मुझे देखने भर की तमन्ना रहती है

डरता हूँ केवल जुदा होने से वरना मुझे यक़ीन है
दूसरे जहां में भी माँ की दुआएं काम करती है


Friday, January 24, 2014

विक्षिप्त दुविधा

टिमटिमाती रात की रंगीनियों में
आतुरता से आश्रय ढूँढता मन,
जब खुद को हारा और भुला हुआ पाता  है 
तो उसे सुनाई देते हैं- वही गूँजते शब्द
"पाश ","मुक्तिबोध" और "मंटो"  के शब्द
जो उस सहमें हुए मन को
भटकाव की सीमा
गहराई और
नग्नता दिखा जाते हैं

और विक्षिप्त मन लाकर पटक दिया जाता है
उस चौराहे पर
जिससे जाने वाले सारे रास्ते भरे पड़े हैं -
कहीं ज़िंदा लाशों से
कहीं चीखते सपनों से
कहीं बेसुध वादों से और
कहीं झगड़ते विचारों से

तब दुविधा और घुटन के बीच अवलोकन होता है
अनुभव का,
और चयन  बेहतर रास्ते का 
फिर सफ़र शुरू होता है-
लाशों पर काँपते हल्के, मगर
मजबूत क़दमों का,
फिसलन से बचने की ज़दोजहद के साथ

कुंठित मन चला जाता है 
चिर परिचित लाशों के सड़क पे
जगह जगह पर मुँह छुपाते
अपनी लाशों से !