Thursday, January 22, 2015

बड़ी बेसब्र थी मंज़िल सो संग-ए-जाम चल पड़ें


सोचूँ सम्भालूँ उससे पहले हमारे इमाम चल पड़ें
बड़ी बेसब्र थी मंज़िल सो संग-ए-जाम चल पड़ें

कुछ दूर ही साथ चल सका फूलों का कारवाँ
अकेले में जो पुकारा तो कांटें तमाम चल पड़ें

बेअसर थें उफ़क़ के इशारे, बादलों की दहाड़
मन में ठानी तो हौसला-ए-नाकाम चल पड़ें

मंज़रों में गुमनामी भी थी और बदनामी भी
वहशत-ए-बेनामी हम करके नीलाम चल पड़ें

मैक़दे के बेवक़्त बंद होने की खबर जो फैली
हर एक फिरके के मजमा-ए-आम चल पड़ें

नेकियों के सहरा में भी ईमान पे नज़र रही
ये अलग था दस्तूर सो कई इल्ज़ाम चल पड़ें

खुद से गुफ़्तगू को तवज्जो मिली कुछ ऐसे कि 
रास्तें में रंग रूप बदलते कई मक़ाम चल पड़ें !!

Friday, January 16, 2015

पूरे शहर को बंदर हम भी बना रखे हैं

तुम्हारे दिल के राज़ हम भी छुपा रखे हैं
तुम्हारे जैसे हवाई क़िले हम भी बना रखे हैं

क्या हुआ जो मौक़ा तुम्हे मिला इसबार
अगली बार को तिजोरी हम भी लगा रखे हैं

लूटने का मुहूर्त नहीं धोखे की सज़ा नहीं
ज्योतिसों के आगे हथेली हम भी फैला रखे हैं 

बेहतर है पारी पारी से जल्दी जल्दी लूटें
इस ख़ामोशी में कुछ को हम भी सुला रखे हैं 

क्या सड़क क्या बाज़ार क्या गली कूचे
पूरे शहर को बंदर हम भी बना रखे हैं 

सब्र करो कि भोर ये हुई वो हुई
अकुलाते लोगों को पैसा हम भी खिला रखे हैं

जागोगे तो हसीं ख़ाबों में खलल पड़ेगा
रंग बिरंगे सपने "शादाब" हम भी सजा रखे हैं

Thursday, January 15, 2015

ख़ून-ए-तल्ख़

अफ़साने दर अफ़साने लिखे
ढेरों नज़्म और ग़ज़लें लिखे
डेंटिंग पेंटिंग कितनी बनीं
कार्टून सार्टून न्यारे बनें   
दर ओ दीवार दोनों उठें
समझे उससे पहले नासमझ उठें
कलम बन्दूक दोनों चली
आस्था विश्वास बेसुध खड़ी 
सोच समझ उड़ती बनी
दुलत्ती किस किस पे पड़ी 
कोने में मूर्छित बग़ावत बेचारी 
कुचले हर्फ़ में क्या जान है बाकी ?
देखे तमाशा अब जनता दुलारी !

Wednesday, January 14, 2015

रोशन हुआ अँधेरा और बेवक़्त सहर किया

कहते हो कि हमने भरोसा क्यूँ कर किया
देखते नहीं किन हालात में मगर किया 

राह के काँटों की नोक उतनी भी नहीं थी
और करते क्या जो तेरे नाम पर किया 

आजमाईश हमारी क़ैद पे जो हो चुकी हो
तो बता वो जगह जहाँ न तूने हो घर किया

गर्दिशों में सही मगर सितारे मेरे भी चमके
यूँ ही कोशिश ज़माने ने न कम कर किया

जो पहुँचें संगे रंजिश बे यार ही कहीं
बेक़रार नालिशों ने हर इल्ज़ाम सर किया

तन्हाई ने आखिरकार आवाज़ जो लगाई
हर सम्त सन्नाटों ने फिर जिक्र किया

करवट बदलते जो कतरा-ए-ख़्वाब गिरा
रोशन हुआ अँधेरा और बेवक़्त सहर किया