Saturday, November 21, 2015

चिंगारी है तो फिर आग क्यूँ नहीं बनती

चिंगारी है तो फिर आग क्यूँ नहीं बनती
कुछ चल पड़े फिर भीड़ क्यूँ नहीं चलती !!

आसमान धुयें  का है या धुआँ आसमान
ऊपर की और निगाह क्यूँ नहीं ठहरती !!

कब तलक देखते रहेंगी  यूं तमाशा
जनता खुद ही किरदार क्यूँ नहीं बनती !!

तुम भी हो हम भी हैं वक़्त भी सही है
फिर बातों बातों में बात क्यूँ नहीं बनती !!

इंतज़ार में उम्र है रास्ते पे निगाह
ये बात मंज़िल तक क्यूँ नहीं पहुचती !!

दिन और आएंगे शाम जलती रहेगी
इसी खबर से रात क्यूँ नहीं गुज़रती !!

Saturday, June 27, 2015

वह मुझमें हीं कहीं खो गया है

वह मुझमें हीं कहीं खो गया है
कोई और था जो मेरा हो गया है

अब नज़र नहीं मिलाता मुझसे
मगर मेरी आँखों से रो गया है

किसी के इंतज़ार में देर रात तक
जाग कर फिर मुझमें सो गया है

प्यार से बुलाओ शायद लौट आये
अभी अभी रूठ कर जो गया है

वो दीवाना इधर से भी गुजरा है शायद
इस बंजर में भी बीज बो गया है 

हक़ सभी जताते हैं उस पर मगर 
खुद नहीं जानता वो किसका हो गया है

बरसों से लोग उसे पागल कहते हैं
मगर कोई नहीं जनता क्यूँ हो गया है

ज़िन्दगी में अब डरना किससे 'शादाब'
जो हादसा होना था सो हो गया है

-पंकज कुमार 'शादाब'

Friday, February 13, 2015

असमंजस

"जा, ले गया!" ( एक थकन भरी साँस के साथ )
पिता के मुँह से इतने ही शब्द निकल पायें,
कबूतरों को दाने डालने के क्रम में
कब कौआ आया
और कार्ड उठा कर उड़ा,
पता ही नहीं चला

कार्ड था इकलौते बेटे की शादी की
बेटे ने आग्रह पूर्वक पिता को आमंत्रित किया था

कार्ड पढ़ने में हिचकिचाते हुए
उसे बाद के लिए टाल दिया था
और कबूतरों को दाना डालने लगें थे

अब सवाल यह रह गया कि
बेटे से शादी का वेन्यू कैसे पूछें ?
बेटे ने माँ को बुलाया है या नहीं ?
और अगर जो बेटा घर आया और कार्ड देखना चाहा तो ?

चेहरे पे उदासी से ज़्यादा उलझने थीं
स्वाभिमान विचारों में तैर रहा था किसी भी वक़्त डूब जाने के लिए
उम्र की ढलान पे रिश्तों की चढ़ान नज़र आ रही थी
और कौआ उड़े जा रहा था
चोच में दबाये सारे जवाब ..... 

Thursday, February 5, 2015

गिरने के डर से गिरे जा रहे हैं

Painting by Vincent van Gogh
गिरने के डर से गिरे जा रहे हैं
मरने से पहले ही मरे जा रहे हैं

ज़िन्दगी का अजीब दौर है यह
जो भी काम मिला करे जा रहे हैं

काँटों ने इल्ज़ाम क्या लगाया
फूलों के रास्ते भी बुहारे जा रहे हैं

हौसले की बुनियाद रिसी भी नहीं
नये मकान तक भरे जा रहे हैं

आईने में अपनी शक्ल देखी भी नहीं 
कि घबरा कर खुद से परे जा रहे हैं

हमें मालूम है बिखरने की हद
तब भी सँवरने से डरे जा रहे हैं

कोई तो ग़लती निकालो हिसाब में
'शादाब' ढेरों इल्ज़ाम मरे जा रहे हैं

Thursday, January 22, 2015

बड़ी बेसब्र थी मंज़िल सो संग-ए-जाम चल पड़ें


सोचूँ सम्भालूँ उससे पहले हमारे इमाम चल पड़ें
बड़ी बेसब्र थी मंज़िल सो संग-ए-जाम चल पड़ें

कुछ दूर ही साथ चल सका फूलों का कारवाँ
अकेले में जो पुकारा तो कांटें तमाम चल पड़ें

बेअसर थें उफ़क़ के इशारे, बादलों की दहाड़
मन में ठानी तो हौसला-ए-नाकाम चल पड़ें

मंज़रों में गुमनामी भी थी और बदनामी भी
वहशत-ए-बेनामी हम करके नीलाम चल पड़ें

मैक़दे के बेवक़्त बंद होने की खबर जो फैली
हर एक फिरके के मजमा-ए-आम चल पड़ें

नेकियों के सहरा में भी ईमान पे नज़र रही
ये अलग था दस्तूर सो कई इल्ज़ाम चल पड़ें

खुद से गुफ़्तगू को तवज्जो मिली कुछ ऐसे कि 
रास्तें में रंग रूप बदलते कई मक़ाम चल पड़ें !!

Friday, January 16, 2015

पूरे शहर को बंदर हम भी बना रखे हैं

तुम्हारे दिल के राज़ हम भी छुपा रखे हैं
तुम्हारे जैसे हवाई क़िले हम भी बना रखे हैं

क्या हुआ जो मौक़ा तुम्हे मिला इसबार
अगली बार को तिजोरी हम भी लगा रखे हैं

लूटने का मुहूर्त नहीं धोखे की सज़ा नहीं
ज्योतिसों के आगे हथेली हम भी फैला रखे हैं 

बेहतर है पारी पारी से जल्दी जल्दी लूटें
इस ख़ामोशी में कुछ को हम भी सुला रखे हैं 

क्या सड़क क्या बाज़ार क्या गली कूचे
पूरे शहर को बंदर हम भी बना रखे हैं 

सब्र करो कि भोर ये हुई वो हुई
अकुलाते लोगों को पैसा हम भी खिला रखे हैं

जागोगे तो हसीं ख़ाबों में खलल पड़ेगा
रंग बिरंगे सपने "शादाब" हम भी सजा रखे हैं

Thursday, January 15, 2015

ख़ून-ए-तल्ख़

अफ़साने दर अफ़साने लिखे
ढेरों नज़्म और ग़ज़लें लिखे
डेंटिंग पेंटिंग कितनी बनीं
कार्टून सार्टून न्यारे बनें   
दर ओ दीवार दोनों उठें
समझे उससे पहले नासमझ उठें
कलम बन्दूक दोनों चली
आस्था विश्वास बेसुध खड़ी 
सोच समझ उड़ती बनी
दुलत्ती किस किस पे पड़ी 
कोने में मूर्छित बग़ावत बेचारी 
कुचले हर्फ़ में क्या जान है बाकी ?
देखे तमाशा अब जनता दुलारी !

Wednesday, January 14, 2015

रोशन हुआ अँधेरा और बेवक़्त सहर किया

कहते हो कि हमने भरोसा क्यूँ कर किया
देखते नहीं किन हालात में मगर किया 

राह के काँटों की नोक उतनी भी नहीं थी
और करते क्या जो तेरे नाम पर किया 

आजमाईश हमारी क़ैद पे जो हो चुकी हो
तो बता वो जगह जहाँ न तूने हो घर किया

गर्दिशों में सही मगर सितारे मेरे भी चमके
यूँ ही कोशिश ज़माने ने न कम कर किया

जो पहुँचें संगे रंजिश बे यार ही कहीं
बेक़रार नालिशों ने हर इल्ज़ाम सर किया

तन्हाई ने आखिरकार आवाज़ जो लगाई
हर सम्त सन्नाटों ने फिर जिक्र किया

करवट बदलते जो कतरा-ए-ख़्वाब गिरा
रोशन हुआ अँधेरा और बेवक़्त सहर किया

Friday, January 9, 2015

ये मत पूछो कि रात इतनी ठंढी क्यूँ है

'Painter on the Road to Tarascon' by Vincent van Gogh
ये मत पूछो कि रात इतनी ठंढी क्यूँ है
चांदनी आईने में छुप कर डरी क्यूँ है

सूरज व्रत तोड़ बहुत दूर निकला
फिर इन सितारों के लबों पे हँसी क्यूँ है

औरों की बर्बादी पे हँसने वालों
तुम्हारी महफ़िल में ख़ामोशी क्यूँ है

जिस्म के चराग जले, लहू तेल बने
महलों के सेहन में अंधियाली क्यूँ है

लूट लो साँसों की जो पूंजी बाकी है
टूटे पिंजड़े में तड़पती ज़िन्दगी क्यूँ है

ऐ पत्थर पहनने वालों पत्थरों
तुम्हारे घर में बिलकती रोटी क्यूँ है

रोटी फेकों भूखे नंगो की फ़ौज पर
फिर देखो सब्र क्या है बेबसी क्यूँ है

मिट जायेगा हर निशाँ नए हवाओं तले
'शादाब' शख़्सियत की नक्काशी क्यूँ है!!