Wednesday, August 7, 2013

जब अपने बने लूटेरे…

जब अपने बने लूटेरे…

ग़रीब मजदूरों के मुंह से निवाले छीने जाते हैं
रक्त-मांस हीन अस्थि के ढाचे में भाले भोके जाते हैं

रोटी वसन लूट कर अब इनके सपने लूटे जाते हैं
दूर करके दिल के टुकड़े को, माँ की ममता लूटी जाती है

टूट चुके शरीर से निकलती कराह लूटे जाते हैं
अब तो बेजुबानो के इशारे लूटे जाते हैं

कफ़न चुराने वाले अब कब्र के पत्थर चुराते हैं
बेच कर मिट्टी को अब किसानों की जरूरत लूटी  जाती है

पड़ गई थी आदत जिन बेड़ियों की
अब वो बेड़ियाँ लूटी जाती है
रिश्ते- नातों को बोझ समझकर
अब बुजुर्गों की दुआएं लूटी जाती है !

Monday, August 5, 2013

होती जब भी उदय है!

घनघोर तिमिर के आँचल में
बसती एक दीप्ती उज्जवल है
हरती  मानस के कुहे को
होती  जब भी उदय है!

रोशन होता मन का हर कोना
शीतल कोमल उसकी अरुणिमा से
आस वासना सब मिट जाता
अनुपम ज्योति की आभा से!

नभ क्षितिज के संगम पे
जब भी नयन पग बढाता है
पाकर विहवल उदय दृश्य
तन मन को हर्षाता  है!

भोर भई, भोर भई
मन हरदम ही चिल्लाता है
पाकर प्रेम ज्योति के आलिंगन को
घड़ी घड़ी हर्ष विकल हो जाता है!

मधुप सुकोमल पावस की वल्लरियाँ
उस ज्योति में इठलाती हैं
बंद चमेली के पंखुड़ियों पे
ओस की बूँद शर्माती है !

ज्योति उदय की बेला पावस के संग
खेलती, मानस जगती को नचाती  है
घुमड़ घुमड़ के काले बदल
किरण सोख, नभमानस को भिंगाते हैं !

प्रमोद मनाता है जगत
हुई ज्योति की अनुकम्पा है
गाँव शहर के जल कुंडों में
पंकज भी हर्ष मनाता है!