अपने गाँव में मैं एक परिंदा होता हूँ
इस भागते शहर में बस ज़िंदा होता हूँ।।
मिलते ही अपने जनों से मुस्कुरा देता हूँ
यादों की बस्ती का बाशिन्दा होता हूँ।।
लौटते कदम रोते हैं सड़क के साथ
समझ नहीं आता कैसा बेदर्द बन्दा होता हूँ।।
भीतर से बिलकुल खाली, काम में मसरूफ
सर को संभालता मज़बूर कन्धा होता हूँ।।
बेजान फिरता हूँ इन ईमारतों के जंगल में
बचपन की गलियों से गुजरते ज़िंदा होता हूँ।।
कुछ तो मज़बूरी है जीने में "शादाब"
अपनी ही ख़ुशी के गले का फन्दा होता हूँ।।
~पंकज कुमार "शादाब" ०४/०२/१७
इस भागते शहर में बस ज़िंदा होता हूँ।।
मिलते ही अपने जनों से मुस्कुरा देता हूँ
यादों की बस्ती का बाशिन्दा होता हूँ।।
लौटते कदम रोते हैं सड़क के साथ
समझ नहीं आता कैसा बेदर्द बन्दा होता हूँ।।
भीतर से बिलकुल खाली, काम में मसरूफ
सर को संभालता मज़बूर कन्धा होता हूँ।।
बेजान फिरता हूँ इन ईमारतों के जंगल में
बचपन की गलियों से गुजरते ज़िंदा होता हूँ।।
कुछ तो मज़बूरी है जीने में "शादाब"
अपनी ही ख़ुशी के गले का फन्दा होता हूँ।।
~पंकज कुमार "शादाब" ०४/०२/१७
2 comments:
Bhaiya u r the best👌😘😘
सच कहाँ आपने,
इस सहर के जंगल में हम सिर्फ जिंदा हैं। इस जीवन पर शर्मिदा हैं। फिर भी जीना पड़ता हैं, हर खुशी हर ग़म के साथ । शायद इसी को जीवन कहते हैं। ये तो वक्त तय करेगा की हम कितने जिंदा और कितने मरे हुए हैं। पर आपकी ग़ज़ल को पढ़ कर लगा, ग़ज़ल अब भी जिंदा हैं।
http://savanxxx.blogspot.in
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