Saturday, November 29, 2014

अब अदालतों में सुनवाई नहीं होगी

अब अदालतों में सुनवाई नहीं होगी
तुम्हारी हमारी जग-हसाई नहीं होगी

तुम्हारे नक़ाब न हम हटाएँगे, बोलो
हमारे रास्तों की भी सफाई नहीं होगी

बेहिचक पूरी हवस के साथ तुम लूटो
इस नेक काम के लिए कारवाई नहीं होगी

नंगे भूखों का इस दुनिया में क्या काम
अमीरों की ज़रुरत में कटाई नहीं होगी

फूंक दो लाशें ही तो हैं इन्हे क्या देना 
ज़मीन के टुकड़ेे की भरपाई नहीं होगी

बाज़ार खुला हथियारों का बन्दूक बोओ
जो मिट्टी मर गयी तो बुआई नहीं होगी

ईमान के काम से अब बरक़त कहाँ
जुर्म करो, भले खुले में बड़ाई नहीं होगी

क्या खूब मक़ाम पे तुम पहुँचे 'शादाब'
इस अंजुमन में कोई रुस्वाई नहीं होगी !

Wednesday, November 26, 2014

जाने किस ग़लती की सज़ा देती है

जाने किस ग़लती की सज़ा देती है
देर रात सोऊँ तो भी जगा देती है

एक अरसा हुआ उसके ख़ाबों में रहे
नींद जो आये रुख से पर्दा गिरा देती है

रुस्वाई न दुहाई न गिला न शिकवा
जो बात हुई नहीं सबको बता देती है

नज़र तलाशता हूँ जिसमें वो न दीखे
मौजूदगी का इल्म जा-ब-जा देती है

इस फ़साने को आगे बढ़ाऊँ या रोकूँ
पूछता हूँ जब भी तो मुस्कुरा देती है

इन जुल्मों की फरियाद करूँ किससे
हर एक हाकिम पर जादू चला देती है

उससे ही रौनक है दर्द की दुनिया 'शादाब' 
हर सितम को बेबसी का पता देती है !

जा-ब-जा - everywhere

Friday, November 21, 2014

कंठ बिक चुके मगर आँखें बोलती हैं

कंठ बिक चुके  मगर आँखें बोलती हैं
राज़दाँ नहीं ये परिन्दे शाख़ें बोलती हैं

ये आज़ाद ख़यालातों का घर है लेकिन 
हाल-ए-बेबसी दरीचे की सलाख़ें बोलती है

ज़माना बदले लेकिन दाग़ नहीं मिटता
वक़्त की ताख पे रखी तारीख़ें बोलती हैं

तारीफें मिलती हैं हर एक महफ़िल में
जाने क्या आईने की कालिखें बोलती हैं

पहनो हज़ारों नक़ाब या चेहरा बदल डालो
'शादाब' भीतर मजलूमों की चीख़ें बोलती हैं

Tuesday, November 18, 2014

कतरा कतरा लहू पानी में मिल गया

'Skull of a Skeleton' by Vincent van Gogh
कतरा कतरा लहू पानी में मिल गया
वो सियासत में सर से पाँव खिल गया

जो भी आया राह में बेगैरत ठहरा
इस ज़माने की रवायतों से हिल गया

कुदरत की साज़िश थी या आदमजात की
आग उगलने वाला हर एक लब सिल गया

रात कोने में बैठा फिर कोई रोता था
उजालों की रफ़्तार में जैसे फिसल गया

एक अरसे से दरिया प्यास छुपाये बैठा था
जो गया किनारे दरिया में हीं मिल गया

तुम कैसे बचे रहे इस ग़लतफ़हमी से
जब कि हर ईमान वाला उसमें जल गया

हर आँख ने खून उगला था उस मंज़र पे
हैरानी है ज़मान इतनी जल्दी भूल गया

हद ये हुई वारदात का चश्मदीद गवाह चाँद
फैसले के दिन बादल पहन निकल गया

किसके जुर्म की सज़ा किसे मिली 'शादाब'
तू भी तो ऐन मौके पर ही बदल गया !

Thursday, November 6, 2014

आम की खेती बबूल से करवायी है

हमने एक और ग़लती अपनायी है
आम की खेती बबूल से करवायी है

पिछले मौसम में गर्मी भ्रष्ट थी
अबके मात्र वादों की बाढ़ आयी है

कुबेर और भिखारी एक ही जानो 
पहचान बताने में वादाखिलाफ़ी है

उसने मक्कारी से सही कमाई तो है
फ़िज़ूल में हाय हाय और दुहाई है

लूटने का मौसम आया, लूटेरे आयें
बाँझ मिट्टी की बोली लगने वाली है

हवा अब भी बेपरवाह है फिरती
कोई बताये उस पर भी शामत आयी है

शाख से झूलते मुर्झाये जिस्म ने बताया
इस इलाके में सूखे की कारवायी है

गर गूंगे हो 'शादाब' तो गूंगे रहो
जिसने मुँह खोला जान पे बन आयी है !