Sunday, May 5, 2013

गाँठें!



टूटने पे जोड़ने से बनी, नहीं!
उलझन से बनी गाँठें!

हर उलझन बनाती है गाँठ
कुछ एक बार, कुछ कई बार
कभी छोटी सी, कभी मोटी सी
न जाने कितनी हीं तरह की होती हैं ये गाँठें!

धागे के अस्तित्व का आभास कराती हैं ये गाँठें
हर धागे को अलग पहचान दिलाती हैं ये गाँठें
बची हुई उलझनों को सीधा कर देती हैं ये गाँठें
टूट रहे धागों में भी जान डाल देतीं हैं ये गाँठें !

अधूरे वादों का काफिला हैं ये गांठें
अनजाने में ही सही
हो गयी भूल की दास्ताँ हैं ये गाठें!

कुछ सुलझे पल, कुछ उलझी यादों
की निशानी हैं ये गाँठें
बंद किये मुट्ठी में
न जाने कितनी हीं ख्वाहिशें हैं ये गाँठें !

अंतर्नाद



कुछ तो रहने दो हमारे लिए, कि
जो हम हीं देखें, हम हीं सोचे
हम हीं केवल मुस्कायें

खुली हुई हैं सारी खिड़कियाँ
एक खुलना है बाकी
रहने दो इसे बंद ही, ताकि
अकेले में हम खोले और मुस्कायें

बात करें हम अकेले में,
जो भी है उस अंधरे में,
आवाज़ हमेशा ही आती है
कुछ अनसुनी, कुछ अनसुलझी,
कभी धीमी, कभी तेज
पर है वह अलग, दुनिया से गैर
सुन समझ कुछ नहीं आता है,
फिर भी दिल सुकून पाता है

कुछ तो रहने दो हमारे लिए, कि
जो हम हीं देखें, हम हीं सोचे
हम हीं केवल मुस्कायें