Friday, December 20, 2013

Phate Khaton ko Phir se Jodta Raha

वो वरक़-दर-वरक़ दिल के ज़ख्म पढ़ता रहा
धूल जमी, फटे खतों को फिर से जोड़ता रहा

चाँद शब भर चांदनी बिखेरे उसके लिए तरसता रहा
वो सूरज की तलाश में सहर तक तड़पता रहा

एक चिराग की रोशनी को कैद कर रखा था उसने
इसी गुमान में फ़लक के नूर को दरकिनार करता रहा

उसके आँगन से वो चिड़ियाँ उड़ चुकी थी
अब वह आँगन के सारे पेड़ों को काटता रहा

उस चेहरे पर न जाने क्या पढ़ा था उसने
यादों को हर्फ़ दर हर्फ़ आँसूओं से मिटाता रहा !!


Saturday, December 7, 2013

Ek Ruhani Sukoon Hai

वो चंचल है
वो बुलबुल है
कमाल की चाल
वो हिरनी है

वो अपने में मस्त
मस्तानी मौज़ है
तारों जैसे टिमटिमाती
घास पर जमी ओस है

वो पूस में निकली
सुहानी धुप है
इतनी सिद्दत से तराशी गयी
एक मात्र रूप है

वो प्रेमी की चिट्ठी में बसी आस है
चिट्ठी पढ़ती प्रेमिका की मुस्कान है

बादलों की गोद से निकली
गतिमान बूँद है
प्यासी धरती की
बची हुई आस है

रोते बच्चे की इंतज़ार है
माँ की ममता का अहसास है

दूर से सुने पहाड़ों तक पहुँची
हवा का ऐतबार है
संग में लाये खुशबू की सौगात है

वो तन्हाई में साथ रहती
तसव्वुर में ही हरदम मिलती
हकीकत न सही, मगर
वो एक रूहानी सुकून है !

Tera Manana Bekaar Huaa

मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं
यह तो आम बात थी, मगर इस बार
मेरा रूठना बहुत लम्बा हुआ
अब उनका मनाना बेकार हुआ !

उनके जाने के बाद दिल में कोई तमन्ना न रही
ख्वाबों को तो पहलें ही दफना चुके थें, मगर
बेसबब जन्म लेते चर्चाओं को सुन
अब टूटे चाप से ज़िन्दगी खेना बेकार हुआ !

शाख कब तक सूखे पत्ते को संभालती
हरे पत्तों के ताने पर जब उसने साथ छोड़ा
तब शज़र खूब रोया, मगर
अब शज़र का रोना बेकार हुआ !

घर में अन-बन तो छोटी सी बात पर हुई थी
गैरों ने हवा दी, और
उसमें अपने इस कदर जलें कि
अब उन्हें बुझाना बेकार हुआ !

Friday, December 6, 2013

Khoye Khoye ho Tum

खोये खोये हो तुम
इंतज़ार किसका है ?

बंद पलकों के पीछे कैद है कोई
तस्वीर ही सही पास है कोई?

बेक़रार आँखों में सवाल है कोई
मिलोगे किस हाल में, जवाब है कोई?

झांकते हो झरोखों से बात है कोई
चला गया है, या आने वाला है कोई?

झुकते हैं ये बादल, इशारा है कोई
पलकें हुई हैं नम, याद आया है कोई?

Wednesday, December 4, 2013

Shabdon ke Saath Beh Gayi Kavita

विचारों का आधार न मिला
जनहित के लिए कारोबार न मिला
भागते समय का सरोकार न मिला
अपेक्षित अधिकार न मिला 
हुई विषय से परे, तो
शब्दों के साथ बह गयी कविता

उतुंग शिखरों पर नज़र गड़ाए
समुद्र तली में रमी लगाये
भटकती हवा से मेल बढ़ाये
कलियों के संग रास रचाये
हुई ज़मीन से विरक्त, तो
शब्दों के साथ बह गयी कविता

मन में एक भाव दबाते
सपनों का संसार बनाते
खुद से हीं तर्क लड़ाते
न जाने किससे छिपाते
हुई विकल, तो
शब्दों के साथ बह गयी कविता


Thursday, November 28, 2013

Kuchh Faqeeron ki Toli Achchhi hai

कुछ की दुश्मनी अच्छी है उनकी दोस्ती से
कभी कभी कुछ की दूरी अच्छी है नज़दीकी से

कुछ लोग साथ हो लिए होते तो शायद बात कुछ और होती
फिर भी मान लिया, कुछ की जुदाई हीं अच्छी है गिरफ्तारी से

मज़लूम की आँखे ही दर्द बयां कर देती हैं
कुछ ज़ालिम की मार अच्छी है गद्दारी से

राब्ता था जिनसे उन्होंने हीं न बख्शा
कुछ गैरों की सलामी अच्छी है फ़रेबी से


रहबर बन कर वो ले आया हमें इन गर्दिशों में
कुछ फ़क़ीरों की टोली अच्छी है झूठी गुमानी से

Ek Dor Chaahat ki Baaki hai

एक डोर चाहत की बाकी है
एक सांस ज़िन्दगी की बाकी है

उस मोड़ पे गुजर गयी उम्र जहां
एक आस मिलन की बाकी है

बहुत दिन हुए यादों में घर किये
एक चेहरा तस्व्वुर में बाकी है

रात दिन अब यही तमाशा
मैं जागूँ और तेरी नींद बाकी है

जहां से गए थे तुम उस वीराने में
पुकारता हलक़ में ज़बान बाकी है 

लुटा के सब कुछ मदहोश है फिर भी
चढ़ावे के लिए एक जान बाकी है

मन करे तो लौट आना वहीँ
देख लेना एक ज़िंदा लाश बाकी है


Sunday, November 24, 2013

भीड़ में, है वह तन्हा

पीछे कदम बढ़ाता 
माज़ी के धुँधले निशानों पर
भूल आया था जिसे
उसे चारो ओर, ढूँढता

एक कदम आगे, तो
दो कदम पीछे
धक्का खाता, संभलता
चाह कर भी, मुड़ न पाता

उन साँसों कि आवाज़
आँखों से बात
कुछ गुनगुनाहट
फिर सुनना, सुनाना, चाहता

वक़्त बेवक़्त का गुस्सा
बेसबब तकरार
उसपर से ये बारबार
यादों में भी उसी से, झगड़ता

आते-जाते, चौक-चौराहे
कुछ देर का संग
एक लम्बी जुदाई
सुलगती यादें, भुलाता 

भीड़ में
है वह तन्हा !

Saturday, November 23, 2013

Voter

वह छिपता-छिपाता
बचता-बचाता
सड़क पर जाता
मिल न जाएं पार्टी वालें
मन ही मन शुक्र मनाता

न जाने
किस काल में काल बनकर
वादों का जंजाल ले कर
कितनों का काल ख़राब कर
धम से प्रकट हो जाए, उसका माथा फिराएं
वह सकपकाता, सहमा सा किनारे से निकल जाता

कुछ हैं उसके अपने
दूर के नज़दीकतम उसे बताते
अब तक दूर थे, पर आज जाना, ये भी करीब थे!
पार्टी में हैं, शायद इसलिए करीब हैं
वादों का एक लम्बा लिस्ट याद है,
सुनाना एक मात्र, वर्तमान में, जिनका काम है
वह सुन के आधे-अधूरे वादों को
सबको अपना समर्थन बताता, आगे बढ़ता जाता

कई बार है सुना
कितने वादों को
दम्भिकों के विवादों को
किराये के प्यादों को
अब कोई फर्क न पड़ता
आधा जीवन काट लिए उसने
उन्हें भी इशारों में समझाता, बाज़ार पहुँच जाता

एक किलो आलू, आधा किलो भाजी
एक पाव टमाटर , एक पाव प्याज़
माँगता, जेब टटोलता
कुछ सोचता.... तन खड़ा हो फिर चीज़े गिनाता
आधा झोला भर
सहमा सा घर लौटता
नज़र घुमाता, घबराता, आगे बढ़ता जाता !

Monday, November 11, 2013

एक बावला कम पड़ रहा है उसके लश्कर-ए-बहार में

एक उम्र कम पड़ रही है उसके इंतज़ार में
एक तक़रार कम पड़ रही है उसके इज़हार में 

दिल की हकीकत न जाने कैसे बयान की हर दफा
एक किताब कम पड़ रही है उसके फ़रियाद में

हर मोड़ पे हर जोड़ पे गुज़ारिश की हमने
एक सवाल कम पड़ रहा है उसके जवाब में

कभी खुशनुमा कभी ज़ख़्मी दिल लाया पनाह में
एक नज़राना कम पड़ रहा है उसके ऐतबार में

कुछ हालात फटकारते हैं मगर
एक बावला कम पड़ रहा है उसके लश्कर-ए-बहार में

Tuesday, October 29, 2013

आज फिर उनसे मुलाकात हो गयी

आज फिर उनसे मुलाकात हो गयी
दिल से दिल की चुपके से बात हो गयी !!

डर था, भीड़ बहुत है, निगाहें कमज़ोर हैं 
मगर उस खुशबू से उनकी पहचान हो गयी !!

किसी ने एक लफ्ज़ भी न कहा
मगर पलकों में सवाल-जवाब हो गयी !!

हिदायत मिली थी दूर रहने की
मगर नज़रें मिली, तो फिर से हिमायत हो गयी !!

कुछ दबी हुई हसरतें दम तोड़ती थीं
उनकी पलकें झुकीं, तो सारी बेनकाब हो गयी !!

नदी थक कर रवानी छोड़ चुकी थी
किस्मत थी, कि अगले ही मोड़ पर वो समंदर हो गयी !!




Saturday, October 26, 2013

शुन्य करता है इंतजार..

प्रथम अनल द्वापर जल
अन्दर अनल बाहर है जल
जल के बगल में धरा
कहीं जल कहीं धरा
ऊपर लहराता है पवन
धरा को छूता है पवन
पवन को बांधे है गगन
धरा को ढकें है गगन

पंचों मिले तो बने यह तन
कहें इसे मिट्टी का या हवा का ? 
आग भी है समाया तो जल भी है भरा!
शुन्य से आयें सब जाना भी है शुन्य में

है सब में हीं यही फिर भी हैं अलग
कहीं आग ने अपना तेज पकड़ा
तो कहीं जल ने शीतलता दी
कहीं पवन प्रचंड रूप धरा
तो कहीं धरा ने धीरज दी
शुन्य सबका करता है इंतजार
मुस्कुराता है
कब तक भागोगे ?
जाओगे कहाँ ? …….



Tuesday, October 1, 2013

जीने में उतना मज़ा न आता!

फूलों के संग अगर जो काटें न होते, 
तो उन्हें तोड़ने में उतना मज़ा न आता
हँसी के साथ अगर जो थोड़े आँसू न होते,
तो जीने में उतना मज़ा न आता!

नज़र मिला कर जो उन्होंने पलके न झुकाये होते,
तो नज़र मिलाने में उतना मज़ा न आता
रूठने पर अगर जो वो आसानी से मान गए होते, 
तो उन्हें मनाने में उतना मज़ा न आता!

वो अगर जो बताये समय पर हीं आ जाते,
तो उनसे मिलने में उतना मज़ा न आता
हर बात पर अगर जो वो मान जाते,
तो उनसे बात करने में उतना मज़ा न आता!

सफ़र में अगर जो कुछ लोग बिछुड़े न  होते,
तो किसी के साथ होने में उतना मज़ा न आता
ज़िन्दगी की राहें अगर जो बिन भटकाये मंजिल मिला देतीं,
तो उनपे चलने में उतना मज़ा न आता!

वो अगर जो फिर से याद न आये होते,
तो उन्हें भुलाने में उतना मज़ा न आता
मेरे सपनो को वो अगर जो अपनी जागीर न बनाये होते,
तो हर रोज सोने में उतना मज़ा न आता!

हँसी के साथ अगर जो थोड़े आँसू न होते,
तो जीने में उतना मज़ा न आता!

Friday, September 27, 2013

माँ! तू तो हमेशा ही वहाँ थी!

आज जीवित्पुत्रिका (जिउतिय) पर्व है जिसमें माँ अपने बच्चे की कुशलता के लिए पूरे २४ घंटे का निर्जाला उपवास करती है. कुछ लोगों के आग्रह पर माँ को लिखा एक खत शेयर कर रहा हूँ. यह खत मैने मदर्स डे के दिन लिखा था. वैसे लिखने तो कविता बैठा था, मगर जब २ पन्ने हुए तो वो एक चिट्ठी बन गयी थी. अगले दिन एक दोस्त को वह सुनाया तो उसने इसे घर भेजने की सलाह दी. मैं तो यहाँ तक भूल चुका था कि इंडियन पोस्ट चिट्ठी भी पहुचाती है. दोस्त के ही सहयोग से पोस्ट कर दिया. घर पर माँ इसे पढ़ कर रोते हुए सिर्फ़  इतना ही  बोली " ऐसा क्यूँ लिखते हो? "

वैसे कविता इस विचार से शुरू किया था कि माँ की जीवन में भूमिका कहाँ-कहाँ है, जो की अपने आप में हीं एक ग़लत सवाल है. क्योंकि अपना अस्तित्व ही माँ से है. फिर भी कुछ पंक्तियाँ बन गयी जो इस प्रकार हैं -


माँ! तू तो हमेशा ही वहाँ थी!

मुझे तो याद नहीं, लेकिन
पापा बताते हैं मुझे, कि
करवट मारते हुए जब मैं
पलंग से पहली बार गिरा था
माँ, मुझसे ज्यादा तू रोयी थी
मुझे गोद में ले पूरे रात न सोयी थी !

बचपन में जब तोतली बोली से पूछ्ता था,
यह क्या है? वह क्या है?
माँ, तू हीं थी वहाँ, मेरा शब्द कोष बढ़ाने के लिए!

खेलने में जब भी चोट लगाकर आता,
माँ, तू हीं थी वहाँ, पैरों पे हल्दी चूने का लेप लगाने के लिए!

जब भी आइसक्रीम वाले का भोपू सुनता,
माँ, तू हीं थी वहाँ, वो कीमती सिक्के देने के लिए!

शैतानी में जब भी तोड़-फोड़ मचाता,
माँ, तू हीं थी वहाँ, पापा से मुझे बचाने के लिए!

हद हो जाने पर जब पापा से पिटाई पड़ती,
माँ, तू हीं थी वहाँ, मेरे आँसू पोछ्ने, मुझे समझाने, सहलाने के लिए!
मुझे पता है माँ, मेरे साथ तू भी रोती थी!

कंचे खेलने के लिए पापा जब भी डाँटते और कंचे फेकने जाते,
माँ, तू हीं थी वहाँ, जो पापा से यह कह कंचे ले लेती कि तू फेंक देगी
मगर हर बार मुझे लौटा कर कहती कि अगले बार न दूँगी!

किसी खुशी में तू हो न हो,
माँ, शायद ही ऐसा दुख़ था जब तेरा साथ न था!
जब भी डर लगता, तेरे आँचल में ही सोता

दिन भर जाने कहीं भटका, थक-हार कर तेरा दामन ही थामा
वहीं शांति मिलती थी, चैन की नींद आती थी!

माँ, आज ज़माने की मज़बूरियों ने दूर कर दिया है मुझे
लेकिन हर हिचकी पर पता चल जाता है कि तू याद कर रही है मुझे!

बिमारी में भी मेरे लिए उपवास करती है,
महीनों तक मिश्री का प्रसाद रखती है,

जब भी मैं घर आता हूँ, तू वह प्रसाद खिलाती है
मैं झल्ला कर कहता हूँ
माह पुराना मिश्री का दाना अच्छा नहीं लगता है

महीनों तक सन्जोह कर रखने पर भी,
तू नही कहती, कि,
तुझे मेरा यह व्यवहार अच्छा नहीं लगता!

माँ, आज भी फोन पर मेरे पूछ्ने पर भी
अपने बारे में कम बताती हो,
मेरे बारे में ही ज़्यादा पूछती हो!

तेरे आशीर्वाद से मैं यहाँ अच्छा हूँ, माँ
ईश्वर से प्रार्थना है, तू सदा अच्छी रहे!

                                                             

Monday, September 23, 2013

मुद्दतों हुए माँ से मिले

'The Mother of Sisera' by Albert Joseph Moore.
मुद्दतों पहले एक शाम बिन बताये घर पहुँचा था
माँ आज भी शाम को चार रोटी अधिक बनाती है!

मुद्दतों पहले मजाक़ में ही माँ से कहा था, कि
तेरे आज के उपवास ने मुझे एक दुर्घटना से बचा लिया
माँ आज भी हर रविवार को उपवास रखती है !

मुद्दतों पहले जिस खिलौने के टूटने पर मैं खूब रोया था
माँ आज भी उस टूटे खिलौने को मेज पर सजा के रखती है !

मुद्दतों पहले मैंने माँ के जिस साड़ी में आसूँ पोछे थे
माँ आज भी उस साड़ी पर हाथ फेर रोया करती है !

मुद्दतों पहले मेरे बीमार होने पर
माँ ने बगल के दरगाह में मन्नत मांगी थी
माँ आज भी हर शाम उस दरगाह में सजदा करने जाती है !

मुद्दतों हुए माँ से मिले, उसकी आखों से वो दुनिया देखे
जिसमें परियां होती थी, राजा रानी की अठखेलियाँ होती थी
फिर एक सुहानी नींद होती थी !

मुद्दतों हुए माँ से मिले!

Wednesday, August 7, 2013

जब अपने बने लूटेरे…

जब अपने बने लूटेरे…

ग़रीब मजदूरों के मुंह से निवाले छीने जाते हैं
रक्त-मांस हीन अस्थि के ढाचे में भाले भोके जाते हैं

रोटी वसन लूट कर अब इनके सपने लूटे जाते हैं
दूर करके दिल के टुकड़े को, माँ की ममता लूटी जाती है

टूट चुके शरीर से निकलती कराह लूटे जाते हैं
अब तो बेजुबानो के इशारे लूटे जाते हैं

कफ़न चुराने वाले अब कब्र के पत्थर चुराते हैं
बेच कर मिट्टी को अब किसानों की जरूरत लूटी  जाती है

पड़ गई थी आदत जिन बेड़ियों की
अब वो बेड़ियाँ लूटी जाती है
रिश्ते- नातों को बोझ समझकर
अब बुजुर्गों की दुआएं लूटी जाती है !

Monday, August 5, 2013

होती जब भी उदय है!

घनघोर तिमिर के आँचल में
बसती एक दीप्ती उज्जवल है
हरती  मानस के कुहे को
होती  जब भी उदय है!

रोशन होता मन का हर कोना
शीतल कोमल उसकी अरुणिमा से
आस वासना सब मिट जाता
अनुपम ज्योति की आभा से!

नभ क्षितिज के संगम पे
जब भी नयन पग बढाता है
पाकर विहवल उदय दृश्य
तन मन को हर्षाता  है!

भोर भई, भोर भई
मन हरदम ही चिल्लाता है
पाकर प्रेम ज्योति के आलिंगन को
घड़ी घड़ी हर्ष विकल हो जाता है!

मधुप सुकोमल पावस की वल्लरियाँ
उस ज्योति में इठलाती हैं
बंद चमेली के पंखुड़ियों पे
ओस की बूँद शर्माती है !

ज्योति उदय की बेला पावस के संग
खेलती, मानस जगती को नचाती  है
घुमड़ घुमड़ के काले बदल
किरण सोख, नभमानस को भिंगाते हैं !

प्रमोद मनाता है जगत
हुई ज्योति की अनुकम्पा है
गाँव शहर के जल कुंडों में
पंकज भी हर्ष मनाता है!

Tuesday, July 30, 2013

बेमिज़ाज समंदर बदहवास लहरें

बेमिज़ाज समंदर बदहवास लहरें
गुमसुम है समंदर गुमनाम हैं लहरें

लहरों की भीड़ देख दम तोड़ती लहरें
लहरों-व-साहिल का मिलन देख जोर लगाती लहरें

कुछ भटकती लहरें, कुछ मटकती लहरें
लहरों का क़त्ल कर आगे बढ़ती लहरें

लहरों को राह दिखाती लहरें
खुद को मिटा लहरों को जगाती लहरें

क़त्ल करके भी गुस्साती लहरें
मिटकर भी मुस्कुराती लहरें

Friday, July 26, 2013

मुंह की बात सुने हर कोई

A mind-blowing lyrics which didn't let me sleep until I wrote it in my own words....Here are both 

Neem ka Ped Title track
“Mu ki baat sune har koi”
Sung by Jagjit Singh
Lyrics: Nida Fazli
Music: Jagjit Singh
The Lyrics goes like this:

मुंह की बात सुने हर कोई
दिल के दर्द को जाने कौन ,
आवाजों के बाज़ारों में
ख़ामोशी पहचाने कौन  ?
सदियों – सदियों  वही तमाशा
रस्ता- रस्ता लम्बी खोज
लेकिन जब हम मिल जाते हैं ,
खो जाता है जाने कौन ?

वो मेरा आइना है और ,
मैं उसकी परछाई हूँ
मेरे ही घर में रहता है ,
मुझ जैसा ही जाने कौन  ?

किरण किरण अलसता सूरज
पलक पलक खुलती नींदें
धीमे धीमे बिखर रहा है
जर्रा – जर्रा जाने कौन ?
मुंह की बात सुने हर कोई
दिल के दर्द को जाने कौन ,
आवाजों के बाज़ारों में
ख़ामोशी पहचाने कौन ?


My words-
मुँह की बात सुने हर कोई
दिल के दर्द को जाने कौन 
आवाज़ों के बाज़ारों में
ख़ामोशी पहचाने कौन 

हँसते हैं सब महफिलों में
छत पे जाने रोता कौन
 उठती हैं तारीफ़ें शब में
सहर पे होता कुरबां कौन

झुकती पलकें समझ ना पायें
छिपी हया को माने कौन
रहता है वो साँसों में जब
यादों में अब आये कौन

जल-जल के भी वो मिट ना सका
होता फ़ना अब जाने कौन
बुझते दीप को संभाला था तब
बुझता हूँ अब जलाये कौन

मुह की बात सुने हर कोई
दिल के दर्द को जाने कौन
आवाज़ों के बाज़ारों में
ख़ामोशी पहचाने कौन ….

Thursday, July 4, 2013

Monday, June 10, 2013

विडम्बना


दृश्य-1
खुले मैदान में
कबूतर दाना चुग रहे हैं,
बार-बार उड़कर-घूमकर
किसी को ढूंढ़ रहे है!
मन ही मन सोच रहे हैं
दाना किसने डाला है?
दिल से दुआएं दे रहे हैं
अनजाने को ही शुक्रिया बोल रहे हैं

उस अनजाने ने,
लम्बे सफ़र में विश्राम दिया है
भड़क रहे भूख को शांत किया है
हतप्रभ परिंदों पर एहसान किया है
मानव के श्रेष्ट होने का प्रमाण दिया है
कबूतर कृतज्ञता के साथ
उसके होने के अहसास पे,
चैन से दाना चुग रहे हैं!

दूर चौराहे पे बैठा कोई,
कबूतरों की बेताबी समझ रहा है, और
मन ही मन मुस्कुरा रहा है!

दृश्य-2
मंदिर के वृहत प्रवेश-द्वार पे
एक बड़े से टाइल पे,
किसी का नाम लिखा है!

हर श्रद्धालु वह नाम पढ़ रहा है
मन ही मन उसका मूल्य आंक रहा है
सोच रहा है
बड़े नाम वाले ने दान दिया है
श्रधा हो ना हो, अर्थ का निवेश किया है!

बगल के ही कोने में
एक बूढ़ा, अपाहिज भिखारी,
दिल की दुआवों को दिल में रोक रखा है
चंद सिक्कों से टूटने वाली
बांध जोड़ रखा है
वह भी उस बड़े नाम वाले की राह देख रहा है

उसे क्या पता
बड़े शहर की बड़ी हवेली में वह बड़े नाम वाला
नयी टइलों पे नाम लिखवा रहा है! 

शिकारी और शिकार



एक सबल एक तेज
जीवन मृत्यु का कैसा खेल?
एक बल से जान ले, अपना भूख मिटाता
एक तीव्रता से, कई बार अपनी जान बचाता!

सबल सर्वदा अजेय नहीं
तेज हमेशा हीं विजय नहीं!
कभी सबल भूख से मरता
कभी तेज जान से बचता!
जीवन मृत्यु के इस खेल में
दोनों ने ही शत्रु बदले हैं
जीत पे एक ने भूख मिटाई,
दूजे ने प्राण गवाये हैं!

इस प्रकृति की रचाना में,
कोई दोष, निर्दोष
यह प्रकृति प्रवाह है
जीना एक मात्र चाह है!

Sunday, May 5, 2013

गाँठें!



टूटने पे जोड़ने से बनी, नहीं!
उलझन से बनी गाँठें!

हर उलझन बनाती है गाँठ
कुछ एक बार, कुछ कई बार
कभी छोटी सी, कभी मोटी सी
न जाने कितनी हीं तरह की होती हैं ये गाँठें!

धागे के अस्तित्व का आभास कराती हैं ये गाँठें
हर धागे को अलग पहचान दिलाती हैं ये गाँठें
बची हुई उलझनों को सीधा कर देती हैं ये गाँठें
टूट रहे धागों में भी जान डाल देतीं हैं ये गाँठें !

अधूरे वादों का काफिला हैं ये गांठें
अनजाने में ही सही
हो गयी भूल की दास्ताँ हैं ये गाठें!

कुछ सुलझे पल, कुछ उलझी यादों
की निशानी हैं ये गाँठें
बंद किये मुट्ठी में
न जाने कितनी हीं ख्वाहिशें हैं ये गाँठें !