
राज़दाँ नहीं ये परिन्दे शाख़ें बोलती हैं
ये आज़ाद ख़यालातों का घर है लेकिन
हाल-ए-बेबसी दरीचे की सलाख़ें बोलती है
ज़माना बदले लेकिन दाग़ नहीं मिटता
वक़्त की ताख पे रखी तारीख़ें बोलती हैं
तारीफें मिलती हैं हर एक महफ़िल में
जाने क्या आईने की कालिखें बोलती हैं
पहनो हज़ारों नक़ाब या चेहरा बदल डालो
'शादाब' भीतर मजलूमों की चीख़ें बोलती हैं
2 comments:
पहनो हज़ारों नक़ाब या चेहरा बदल डालो
'शादाब' भीतर मजलूमों की चीख़ें बोलती हैं
...बहुत दिनों बाद उसी अंदाज़ में... प्रभावशाली!!
शुक्रिया संजयजी ! बस हौसलाअफजाई करते रहे.
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