Friday, November 21, 2014

कंठ बिक चुके मगर आँखें बोलती हैं

कंठ बिक चुके  मगर आँखें बोलती हैं
राज़दाँ नहीं ये परिन्दे शाख़ें बोलती हैं

ये आज़ाद ख़यालातों का घर है लेकिन 
हाल-ए-बेबसी दरीचे की सलाख़ें बोलती है

ज़माना बदले लेकिन दाग़ नहीं मिटता
वक़्त की ताख पे रखी तारीख़ें बोलती हैं

तारीफें मिलती हैं हर एक महफ़िल में
जाने क्या आईने की कालिखें बोलती हैं

पहनो हज़ारों नक़ाब या चेहरा बदल डालो
'शादाब' भीतर मजलूमों की चीख़ें बोलती हैं

2 comments:

संजय भास्‍कर said...

पहनो हज़ारों नक़ाब या चेहरा बदल डालो
'शादाब' भीतर मजलूमों की चीख़ें बोलती हैं

...बहुत दिनों बाद उसी अंदाज़ में... प्रभावशाली!!

Pankaj Kumar 'Shadab' said...

शुक्रिया संजयजी ! बस हौसलाअफजाई करते रहे.