Sunday, May 5, 2013

अंतर्नाद



कुछ तो रहने दो हमारे लिए, कि
जो हम हीं देखें, हम हीं सोचे
हम हीं केवल मुस्कायें

खुली हुई हैं सारी खिड़कियाँ
एक खुलना है बाकी
रहने दो इसे बंद ही, ताकि
अकेले में हम खोले और मुस्कायें

बात करें हम अकेले में,
जो भी है उस अंधरे में,
आवाज़ हमेशा ही आती है
कुछ अनसुनी, कुछ अनसुलझी,
कभी धीमी, कभी तेज
पर है वह अलग, दुनिया से गैर
सुन समझ कुछ नहीं आता है,
फिर भी दिल सुकून पाता है

कुछ तो रहने दो हमारे लिए, कि
जो हम हीं देखें, हम हीं सोचे
हम हीं केवल मुस्कायें