तुझसे और दूर जाऊँ कितना
कोई फैसला तुम हीं सुनाओ
फासला मैं भी निभाऊँ कितना
राहे उम्मीद बेरंग ही रहती है
बेकसी में रंग भरूँ कितना
कोई मंज़िल सी दिखती नहीं
इसी सफ़र को दोहराऊँ कितना
जिसकी खबर होती नहीं उसका
हाल खुद ही को सुनाऊँ कितना
इस शोर भरी दुनिया में ढूँढूँ कहाँ
ख़ामोशी में सब कुछ कहूँ कितना
ग़ुलाम उसकी मर्ज़ी के "शादाब" सभी हैं
जो बेपरवाह जिऊँ तो जिऊँ कितना !!
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