Sunday, August 19, 2018

हमारे ग़म में कोई कमी न थी

हमारे ग़म में कोई कमी न थी
ये ज़िन्दगी यूँ ही रमी न थी

हर चिराग बुझा दी मेरे रक़ीब ने
मगर मेरी चाहत मौसमी न थी

वफायें धूल बन उड़ी हर सम्त
जिनके इरादों में नमी न थी

ज़ख्म फिर हुआ हरा बहार आयें
जो गुज़री हवा वो मातमी न थी

शबनम से मोहब्बत हुई 'शादाब'
फिर धूप से दोस्ती लाज़मी न थी

1 comment:

Safar said...

sir u r awesome, nd proud to be ur student