वक़्त रहते संभल जाओ अभी आग नहीं लगाया गया है!
बारूद का ढेर एक अरसे से दिमाग़ में जमाया गया है
तभी तो अफ़वा की चिंगारी को बुलवाया गया है!
जागे होते तो संभल गए होते, मसला तो ये है
साज़िश के तहत तुम्हें सोते हुए चलवाया गया है!
बादलों में हूर का हुस्न और कहीं रक्त से धूली धरती
तभी तो हवा में लटकता मकान बनवाया गया है!
कभी पैरों से ज़मीन को चूमते और होती बेपर्दा आँखें
तो देखते जहाँ को कितना सुंदर सजाया गया है!
कभी ख़ाली बैठो तो ‘शादाब’ ख़ुद से सवाल करो
तुमसे क्या क्या कह के क्या क्या करवाया गया है!!
4 comments:
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार ७ दिसंबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
वाह बहुत ही सुंदर जनाब।
मज़ा आ गया।
चेतावनी!!मुसीबत को आगाह करती रचना।
सार्थक।
sir ur creations are too good
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