Thursday, January 16, 2014

बेकारी और फ़िरक़ापरस्ती में भी सियासत

इस तालाब में अब भी हलचल बाकी है, वरना
किनारे पर तो हम सुबह से पत्थर ले कर बैठे हैं !

दौलत के साथ साथ घर भी फूंक दी हमनें
बैठने की आदत है इसीलिए सड़क पे आ कर बैठे हैं !

तुम इस पहाड़ की चोटी फतह करने निकले हो
हम तो कबसे इसमें सुरंग बना कर बैठे हैं !

ये गर्दिशों के बादल आज नहीं तो कल छटेंगे
उसी कल के इंतज़ार में तो, हम एक उम्र से बैठे हैं !

आयें थे इस गली में आँखें चार करने 
तभी से यहाँ हाथ पैर तुड़वा कर बैठे हैं !

मेरा भला, सबका भला ये हसरत मुददतों से पाले बैठे हैं
पर क्या करें? जहाँ बैठे हैं, बड़े इत्मीनान से बैठे हैं !

इस आंदोलन को तो हम चुटकियों में मसल दें
मगर इस चुटकी में भी कुछ राज़ दबा कर बैठे हैं !

इन ज़हरीली हवाओं में दम घुटता तो है
आँखों में लहू भी है, पर ज़बान दबा कर बैठे हैं !

जो निकले थें सर कटाने, वो सब सेहरा बांध कर बैठे हैं
अगले जुलूस के ताक में, हम भी सर मुँड़वा कर बैठे हैं !

4 comments:

mad_mumbler said...

अभिव्यक्तियाँ बहुत ही सुन्दर और सटीक हैं। बेबसी को एक नयी ज़ुबान मिली है लगता है।

Pankaj Kumar 'Shadab' said...

शुक्रिया ताबिश भाई!! जो भी है, इन उड़ते वक़्त के परों पे उस वक़्त के जज़्बात दर्ज कराने की एक कोशिश है !

MJ said...

जज़्बात दर्ज कराने की कोशिश भी आखिर एक कोशिश ही तो है। यह भी ज़रूरी होता है की आख़िरकार जज़्बात तो दर्ज हो।

Pankaj Kumar 'Shadab' said...

सही कहें मृत्युंजय जी..…और उसी के लिए प्रयासरत हैं